अपने ही द्वारा अपना अभिनंदन
स्वीकार नहीं है मुझ को मेरे मन !

चाहो तो सुस्ता लो, पर मत ऊबो,
पीड़ाओं के भंवरों में मत डूबो,
वरदान न मांगों  तुम जग वालों से;
अमृत की चाह करो मत व्यालों से;
अनुभूति नई लेने दो जीवन में;
मिट जाने दो अपने पागलपन में!

अपनी सांसों पर औरों का स्पन्दन,
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन!
अपने ही द्वारा अपना अभिनंदन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन ।।

मैंने तम की अगणित परतें काटीं,
गम की गहरी खाइयां विहँस पाटी ;
परतों पर परतें जमा रहा है तम;
खाई पर खाई बना रहा है गम ;
युग का कटु सत्य बहुत मैंने ढाला,
पर फिर भी रीता है मेरा प्याला !

करुणा के हाथों लगा हुआ चन्दन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन !
अपने ही द्वारा अपना अभिनंदन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन ।।
तेरी क्षमता से बंधन टूटेंगे,
हम-तुम दोनों युग का मधु लूटेंगे,
संघर्षों से उकता मत मेरे मन !
विपदाओं पर झुंझला मत मेरे मन !
हर रात प्रात की चेरी होती है
बिंध कर ही कंकर बनता मोती है

कृत्रिम मित्रों के झूठे आश्वासन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन !
अपने ही द्वारा अपना अभिनंदन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन ।।

कितना भी तम हो फिर भी ये बांहे-
निर्मित कर ही लेंगी नूतन राहें,
कुंठाओं से मत घिर नवनीत बना;
छंदों की मादक स्वर-लहरी लहरा !
युग स्वयं करेगा तेरा अभिनंदन,
ये रजकण ही बन जाएंगे चन्दन !

लक्ष्मण-रेखा में घिरा हुआ जीवन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन !
अपने ही द्वारा अपना अभिनंदन।
स्वीकार नहीं है मुझको मेरे मन ।।