इस जगती के कोलाहल में,
राग-रंग में, चहल-पहल  में,
इसलिए तो शुन्य विजन में, बैठ हृदय को बहलाता हूँ।
गीत नहीं लिखने पाता हूँ।

मेरे कुछ इतिहास नहीं है,
मन में अब उल्लास नहीं है,
मैं गुलाब पुष्प, आह! खिलते ही तोड़ लिया जाता हूँ।
गीत नहीं लिखने पाता हूँ।

मुझको कौन मनाने आता,
व्यथित हृदय सहलाने आता,
बधिक मारने को उत्सुक पर मैं विहंग उड़ता गाता हूँ।
गीत नहीं लिखने पाता हूँ।

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