चार दिन की चाँदनी मेरे जगत में भी रही।

तुम गगन के चाँद बनकर मुसकराये थे कभी
हृदय-सागर में अनूठे ज्वार आये थे कभी
हैं मुझे यह याद सुध-बुध भूलकर संसार की –
प्यार में डूबे हुए कुछ गीत गाते थे कभी।

प्रीत की गंगा कभी मेरे जगत में भी बही।
चार दिन की चाँदनी मेरे जगत में भी रही।

प्यार का यह सिन्धु मथने पर गरल मुझको मिला
कर दिया तुम को अमर उस सिंधु का अमृत पिला
पर न मर भी सकूँगा आज इस विषपान से
क्योंकि इस विष की जलन ही तो रही मुझको जिला
विश्व-भर की वेदना इन मूक प्राणों ने सही।
चार दिन की चाँदनी मेरे जगत में भी रही।

तोड़ मैं क्यों दूँ पुरानी प्यार की सुन्दर प्रथा
मैं किसी से क्यों कहूँ  इन दग्ध-प्राणों की कथा
आज जीवन में प्रबल तूफ़ान भी है, शांति भी
धर रही है होलिका का रूप अब मेरी व्यथा
पर न मैंने आज तक अपनी व्यथा जग से कही
चार दिन की चाँदनी मेरे जगत में भी रही।