जो लहर मझदार में लहरा चुकी हो –
कूल पर आना उसे भाता नहीं हैं।
हाल मेरी जिंदगी का भी यही है –
बन प्रबल मझधार, मस्ती से वही है
ढूँढ कोई भी न पाया थाह मेरी
रोक कोई भी न पाया राह मेरी
मैं चला जिस पंथ पर तूफ़ान आए
पर चरण मैंने सदा आगे बढ़ाए
मैं प्रलय के पंथ में हँसता रहा हूँ –
व्यर्थ घबराना मुझे भाता नहीं हैं।
जो लहर मझधार में लहरा चुकी हो –
कूल पर आना उसे भाता नहीं हैं।
जो अमावस की तमिस्त्रा में चला हो
आँधियों की लोरियों के संग पला हो
मौन खंडहर का रहा हो मीत बनकर
दूसरों के हित जिया हो जो निरन्तर
जो जिया हो प्यार की बनकर निशानी
कह रहा हो रूप की मोहक कहानी
शलभ की अनुनय-विनय के सामने प्रिय,
व्यर्थ बुझ जाना उसे भाता नहीं है।
जो लहर मझधार में लहरा चुकी हो –
कूल पर आना उसे भाता नहीं हैं।
घिर रही जो गगन में काली घटाएँ
दामिनी दिखला रही हो निज अदाएँ
चाहती हो चाँद को बन्दी बनाना
चाँद के उद्दाम यौवन को मिटाना
मेघ अगणित बार आ-आकर गए हैं
चाँद ने हर बार छोड़े स्वर नए हैं
चाँद पर नूतन कला, नूतन जवानी
वह किसी बहकाव में आता नहीं हैं।
जो लहर मझधार में लहरा चुकी हो –
कूल पर आना उसे भाता नहीं हैं।