तुम तब आना,
जब नभ पर घन दल मँडरायें,
चपला चमके मन घबरायें,
फिर शीत पवन के झोंकों से
तन सिहर उठे, सिर झुक जायें।।
औ’ अनजाने में बढ़ जायें
मेरी बाँहें आलिंगन को–
तब धीरे-धीरे से आकर
तुम भुज बन्धन में बँध जाना।
तुम तब आना,
हो नव वसन्त, कोकिल बोले।
वन भ्रमित चकित, भँवरा डोले।
जब हाट लगा कर बैठी हो,
सब सृष्टि ग्रन्थि उर की खोले,
जब कलि के कानों में अलि का
सन्देश गूँजता हो प्रतिपल–
तब चुपके-चुपके से आकर
तुम सब रहस्य बतला जाना।
तुम तब आना,
मैं तुम्हें ढूँढने को निकलूँ,
फिर अपनी कुटिया से जिस क्षण।
चलते-चलते पग छिद जायें,
हो जाय शिथिल जब मेरा तन।।
औ’ किसी शिला का ले आश्रय
हो बेसुध जाऊँ बैठ कहीं–
तब हौले-हौले से आकर
कंटक निकाल तन सहलाना।
तुम तब आना,
जब जलते-जलते दीप शिखा,
अपनी प्रिय ज्योति गवाँ जाये।
जब नभ से लेकर धरती तक,
कुहरा ही कुहरा छा जाये।
जब मिलन प्रतीक्षा की अन्तिम–
आशा पर फिर जाये पानी
तब अलसित, मस्त अचेतन से
तुम आकर द्वारा खटखटाना।
तुम तब आना,
जब नभ से चाँदी बिखर-बिखर,
धरती पर बिछती जाती हो।
नद उछल-उछल कर बहता हो,
औ’ नाव थपेड़े खाती हो।
मैं लक्ष्य-भ्रष्ट होकर सोचूँ
अब जीवन का आधार कहाँ?
तब, तट पर आ, निज हाथ उठा,
प्रिय! साथी कहकर चिल्लाना!
तुम तब आना,
सूनापन मुखरित करने को,
जब बजती हो वीणा मनहर।
दग बंद, पूर्ण तन्मयता से,
तारों पर थिरक रहा हो कर।
उस जीवन की बेहोशी में
जायें वीणा की टूट तार-
दृग खुलने से पहले आकर
तुम तार लगाकर मुस्काना!
तुम तब आना,
जब प्रलय हिलोरें लेती हो,
उनचास पवन खुलकर गावें।
धरती डोले, अम्बर काँपे,
रवि-शशि, दोनों ही छिप जावें।
मैं, जीवन के तममय पथ पर
गिरता-पड़ता बढ़ता जाऊँ !
तुम अमिट ज्योति बन छा जाना!
तुम तब आना।
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