निराला, पाण्डे  बेचैन शर्माउग्र’, हरिकृष्णप्रेमीके समकालीन  काव्य मंचों के स्वाभिमानी कवि स्वर्गीयदिनेशजी रेडियो नाटकों के लिए भी प्रसिद्ध रहे।प्रेमजी सेदिनेशजी के अत्यंत पारिवारिक अन्तस की गहराई से जुड़े रहे हैं यहाँप्रेमजी के एक  भिन्न रूप से साक्षात्कार कराता उनका यह संस्मरण दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ था।[1]

अपने निकट के व्यक्ति पर संस्मरण लिखना बहुत ही कठिन कार्य है। सम्भवतः इसीलिए इस कार्य को करने में मुझको बहुत समय लगा। कई बार सोचा, लिखा फिर लिखा। फिर बीच में गोता लगा गया।

कई रत्न अनेक वर्षो तक धरती के गर्भ में दबे रहते हैं। कई दिखते-चमकते हैं। फिर परिस्थितियों की गुफा में विलीन हो जाते हैं। कालचक्र कई रत्नों को अपनी गति के साथ चमकाता और छुपाता है। यही बात साहित्यकारों, कवि व लेखकों के साथ भी है। श्रीराम भाई कवि तो अच्छे थे लेकिन संस्मरण लिखने की भी प्रबल क्षमता है, पर इस दाल रोटी के चक्कर ने बड़े-बड़ों को घेर रखा है। हम दोनों जब भी मिलते हैं, सोचते हैं, योजनांए बनती हैं…………..(सब व्यर्थ)

कालचक्र की गति में कागज सूने रह जाते हैं लगता है कहीं कोई कमी है। ‘प्रेम’ दादा में। हां कमी तो है ही। वह गृहस्थ बहुत अच्छे हैं, आदमी बहुत अच्छे हैं। साहित्य देवता अपने लिए जो ममत्व, मोह, परिश्रम और साधना चाहता है औरों में बंट जाती है।

प्रेम स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी हैं देश प्रेम के साथ-साथ समाज, पास-पड़ोस आये-गये, के प्रति तीव्र निष्ठा है उनके मन में। लिख रहे हैं, लिखने का मूड है पर किसी ने अपना दुख रोया, लेखनी कागज पर रह गयी, प्रेम दा समाज और मानवता की सेवा के लिए चल दिए। वर्षो से यही हो रहा है। यहीं देखता चला आ रहा हूँ। साहित्य का देवता अपने प्रति उदासीनता सहन नहीं करता। यही बात है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे कभी-कभी दुख होता है। ‘प्रेम’ बहुत लिख सकते थे, पर उदारता रूपी विवशता उन्हें जकड़े हुए हैं।

कमाल है! 28 वर्षो का सानिध्य, मैत्री बड़े-छोटे भाई का सा मोह याद आ रहा है। सन् 1935 का एक कवि सम्मेलन। हजार संस्मरणों का एक संस्मरण। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के सभापतित्व में दो दिन कवि सम्मेलन और कवि गोष्ठियों की एक कड़ी वहीं सर्वप्रथम अनेक कवियत्रियों और साहित्यकारों से भेंट हुई। साहित्यकारों में प्रमुख थे- श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ कवियों  में सर्वश्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ गोपाल प्रसाद व्यास, बलबीर सिंह ‘रंग’ श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’, शैलेन्द्र कुमार पाठक और अनेक कवि मित्र जो आज स्मृति पटल पर नहीं है। उन्हीं में तीस वर्ष  एक युवक श्रीराम ‘प्रेम’ का व्यक्तित्व बड़ा पैना, खरा हुआ। राष्ट्रीय और प्रणय भावनाओं से ओत-प्रोत रचनाओं ने मोहित किया। कवि सम्मेलन उभार पर आया। अमर शहीद श्री देव सुमन पर लिखी गई उनकी राष्ट्रीय रचना ने और भावभीने गीतों ने उस समय ही नहीं, बाद में भी अनेक वर्षों तक जनमानस को आलोड़ित किया है।

तब कवि सम्मलेन होते थे और अब उस कवि सम्मेलन के बाद वहां से मुझे वे अपने साथ देहरादून ले गये। तब से लेकर अब तक स्नेहसूत्र अपने बन्धन दृढ़ करता रहा है। जिनमें लाहौर, सरगोधा, रावलपिंडी, चीमा, यमुनाबृज, उत्तरकाशी, अनेक जगहों के संस्मरण। खैर छोड़ों। चार वर्ष पुरानी बात है। मेरा आंगन प्रेम दा के व्यक्तित्व से आलोकित हो रहा है। पत्नी ने जेठ के आगमन का लाभ उठाना चाहा। बच्चों ने ताऊ जी के आशीष का, मैने भी हामी भर दी। कहानी इस प्रकार है- लोग रामचरित मानस का अखण्ड पाठ कराते हैं। अशुद्ध पढ़ने वालों को सुनकर मन में खीझ पैदा होती है। क्योंकि इच्छा थी हमारे यहां रामायण को अखण्ड पाठ हो और एक-एक शब्द शुद्ध पढ़ा जाये। सबके आग्रह पर ‘प्रेम’ दा बन गये पुरोहित। भाग्य ने बड़ा साथ दिया। सर्वश्री रामावतार त्यागी, ओम प्रकाश आदित्य, दामोदर स्वरूप ‘विद्राही’, सत्यपाल नागिया और स्वयं मैं और उर्मिला, राजीव उनकी शिष्य मण्डली में शामिल। ऐसे लग रहा था जैसे एक काव्य के महा वटवृक्ष तुलसीदास को आधुनिक काव्य के बहुचर्चित पुष्प अपनी श्रद्धान्जलियां दे रहे हों। प्रेम दा की सुमधुर वाणी के कारण वातावरण में अभूतपूर्व अपार भीड़ थी। परशुराम-लक्ष्मण संवाद तो हम लोगों ने झांज-मंजीरों के साथ गाया। परिजन, इष्ट मित्र, नगर निवासी सभी भाव विभोर थे। बड़ी सौम्यता से सम्पन्न हुआ रामायण का अखण्ड पाठ। उसके बाद ही प्रेम दा के सम्मान में गोष्ठी हुई जिसमें रमानाथ अवस्थी और पुष्पा अवस्थी भी सम्मिलित हुए। बहुत समां बंधा। अब भी कभी भक्त महिलाएं मेरी पत्नी से और भक्त पुरुष मुझको रास्ते में रोककर कहते हैं या घर आ जाते हैं – ‘सुनो’ दिनेश यार ऐसा ही अखण्ड पाठ एक बार फिर हो जाये।’

[1] रविवार 19 फरवरी, 1989 को दैनिक हिंदुस्तान में छपा-कवि देवराज दिनेश द्वारा अपने मित्र स्वाधीनता सेनानी कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम‘ का दुर्लभ संस्मरण (कवि डा0 अतुल शर्मा की फाइल से)।