मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

लिए सहारा खड़ा हुआ हूँ, मैं मरघट के अक्षयवट का।
इस तरु ने आँधियाँ हजारों, और सहा तूफानी झटका।
जो जलते हैं वही बने थे, इस जग में महमान किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

इस तरु ने देखा कितनों की, मिट्टी में मिल गई जवानी।
इस तरु ने देखा बालों में, मिट्टी डाल रही है रानी।
दीवानी कहती है -कभी न बन पाये भगवान किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

कितने दिन, कितनी ही रातें, काट चुका हूँ मैं मरघट में।
लाखों भाव उदय होते हैं, लाखों जलते एक लपट में।
दूर किसी अज्ञात दिशा से, आते हैं आह्वाहन किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

जग में सब नश्वर हैं, सबको- अपना आप मिटाना होगा।
और अनश्वर मरघट में  आ, मरघट ही बन जाना होगा।
यह अपने सामान बनेंगे, फिर पीछे सामान किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

मरघट हो फिर निशा हो, धू-धूकर जल रही चिता हो।
पास कगारों से टकराती, अट्टहास करती सरिता हो।
स्वर उलूक का गूँज उठे, फिरकर विरुदावलि गान किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

कभी सिहर कर विहग नीड़  में, अपने पर फड़का देता हो।
पत्तों का मर्मर स्वर और भयानकता ही ला देता हो।
तुम्हीं बताओ, क्या न वहाँ पर सूख जायेंगे प्राण किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

ज्ञात नहीं कुछ क्योंकर मेरे, कवि को निर्जनता भाती है।
अरे, भयानकता तो उलटी, उसे देखकर भी खाती है।
वह कंकाल चला करता ले, स्मृतियों के उद्द्यान किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

मुझे नहीं इस मरघट से  भय, मुझे नहीं इस जीवन से भय।
क्योंकि एक दिन इसी अनश्वर में, मुझको भी होना है लय।
हँस-रोकर मैं कभी बना दूँगा यह अपने प्राण किसी के।
मरघट में जल रही चिता है, झुलस रहे अरमान किसी के

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