रावण से चार भेंट

रावण से चार भेंट

एक दिवस काफ़ी हाउस में,

पहुँचा मैं, बैठा, सिगरेट सुलगाई।

तभी दृष्टि पड़ गई, पास बैठे मानव पर,

क़ाफी के घूंटों से अपना शुष्क गला करते तर,

मैं पहचान गयायुग पंडित अपना शीश झुकाये,

सोच रहे थे चिंता में डूबे, सहमे, सकुचाये।

छद्म वेश में रावण थे वह।

मैने किया प्रणाम,

विहँस कर दिया मुझे आशीष,

छत की कडिंया गिनते बोले स्वर्ण पुरी के ईश

कैसे हो सुत ?”

“अच्छा हूँ प्रभु्!” फिर सिगार का कश ले,

सर्पाकार धुआँ लहराकर,

भावों के गहरे सागर में डुबकी एक लगाकर,

तट पर आकर, टाई की कर गाँठ ज़रा ढीली, मुस्काकर,

बोले युग के दृष्टा

यह युग बड़ा विलक्षण,

मानवदानव दोनों के हैं एक सरीखे लक्षण।

यह युग कैसा लगा

प्रश्न झट मैने किया अचानक।

भयविवर्ण हो गया गौर मुख,

बोलेबहुत भयानक।

फिर हँस फ़ीकी हँसी,

लगा, यों वाणी दुख में गसी।

बोलेस्पष्ट नहीं है कुछ भी,

सब धुँधला धुँधला है।

यह युग उलझनभरा।

इसे कुंठा ने आज डसा है।

राजनीति के दल चुनाव के चक्कर में रहती है।

शत्रुमित्र की परख, स्वार्थ की गंगा में बहती है।

बैरा ले सिगार आया,

बोले उसे को सुलगा कर

जल्दी में हूँ, चलूँ, मिलँगा

स्वयं, किसी दिन आकर।

एक मिनिस्टर को दावत दी है,

घर आज बुला कर।

फिर सिगार का कश ले,

लौटे, चिन्ता के घेरे में बोले

‘‘खादी भवन पास है

हम खद्दर का कुरतापायजामा ही खरीद लें।

क्योंकि मिनिस्टर को दावत दी है, घर आज बुला कर।

इस अवसरवादी युग में

सब कुछ करना पड़ता है।।

X X X X

कुछ दिन बाद, अचानक पथ पर मिले,

थे वैसे गम्भीर,

देख कर मुझको पर कुछ खिले।

मैने किया प्रणाम,

पीठ थपथपा कर मुझे दिया आशीष।

फिर सिगार सुलगा कर बोले स्वर्णपुरी के ईश

चलो पार्क में बैठें,

कुछ गपशप हो जाए।

सदा बंद कमरों में बैठे रहते हो तुम,

जीवन अक्सर चौराहों पर ही मिलता है।

पहुँच बाग में,

बैठ बैंच पर, पैरों को फैलाते।

बोले, मन की उलझन को सुलझाते

कल मिल गये अचानक पथ पर राम।

मैने किया प्रणाम।

फिर पहचान गये मुझे निज कंठ लगाया

बोलेराम दुखी था, अति ही भारी

क्यों प्रभु! डनकी ऐसी क्या लाचारी?

बात विभीषण की चल निकली

भारतभक्त राम के दिल में बड़ी व्यथा थी।

बोले रावण इतने यहाँ विभीषण

हमतुम दोनों मिल कर भी यदि,

उन को मारें, मार पायें।

प्रभु हो गये उदास।

फिर रूक कर बोले वे कुछ क्षण

यह युग बड़ा विलक्षण।

भक्त अभक्त यहाँ दोनों के एक सरीखे लक्षण।

मुझ को तो ऐसा अनुभव होता है रावण!

दे सकेगी, अब इस युग में

सीता अग्नि परीक्षा।

लगता है इस युग में

अग्नि परीक्षा मुझको देनी होगी।

इस क्षण मुझको यह लगता है,

मैं नहीं मरा हूँ, नहीं मरूँगा

इस दुनियाँ में कभी किसी क्षण।

मैं मानव की दुर्बलता, दृढता, अज्ञान, ज्ञान

सब का बढ़िया मिश्रण हूँ,

मैं रावण हूँ।

मैं मानव की मीठी, प्यारी दुर्बलता हूँ,

मैं मानव हूँ।

 

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बीत गए दो चार महीने, नहीं मिले वह,

तभी एक दिन मिले अचानक,

पिक्चर हाउस में बैठे, वह देख रहे थे पिक्चर

और भाग्य की बात,

पास उनके ही सीट मुझे मिल गई।

घुटने छू कर मैने किया प्रणाम।

शीश चूमकर मुझे दिया आशीष। कैसे हो प्रिय?

अच्छा हूँ प्रभु।

पिक्चर चल निकली थी, कुछ क्षण रहे देखते।

बोलेयह युग बड़ा विलक्षण।

नायक खलनायक, दोनों के एक सरीखे लक्षण,

फिर कुछ क्षण शांत रहे पिक्चर निहारते।

बोले हो गम्भीर

खींच दीर्घ निश्वास, तनिक रूक बोले

कल मिल गया अचानक पथ पर लक्ष्मण,

पागल है वह।

इस युग में भी बन्धु भाव की,

वही लकीरें खींच रहा है।

स्नेहप्यार से सनी

जिन का मूल्य यहाँ कुछ।

यह युग है औरंगजे़ब के हाथों वाला,

जो मुराद के गर्म रक्त से सने हुए हैं।

दारा की ऊँची चीखों से गूंज रहा है यह युग।

इस युग में सुग्रीव मिलेगें, तुमको,

और विभीषण मिल जायेगें।

किन्तु भरत इस युग में तुमको नहीं मिलेगा।।

वह मेरे युग की क्षमता थी। ‘‘

एक दिवस घर पर बच्चों से खेल रहा था कैरम,

तभी सीढ़ियों में गूंजी आवाज

अलख निरंजन, अलख निरंजन, अलख निरंजन,

पहचाना स्वर लगा, दौड़ कर पहुँचा,

स्वयं महाप्रभु, मांग रहे थे भिक्षा।

मैने किया प्रणाम।

विहँस कर बोले

अरे, यहाँ पर रहते हो तुम ?

भीतर आए, मैने दोनों नन्हें मुन्ने लड़के,

पदतल बींच झुकाए।

विहँस दिया आशीष

एक बनेगा रावण इनमें,

एक बनेगा राम।

यह कैसा आशीष महाप्रभु।

पागल हो तुम।

इस युग में

रावण और राम दोनों की है कल्पना अधूरी।

दोनों मिलकर, कर पायेगें अपनी क्षमता पूरी।

राम सिर्फ आर्दश और मर्यादा की प्राचीरों में,

घिरा हुआ वह महान मानव था जो

धोबी के कहने से,

दे सकता था अपनी सतवन्ती पत्नी को वनवास।

रावण क्या था?

सोने के सिंहासन पर बैठा वह प्रखर अहम् था,

जिस को था नींव का ज्ञान।

नींव हो चुकी खोखली।

रावण और राम दोनों की है कल्पना अधुरी

इस युग में।

दोनों मिल कर कर पायेगें अपनी क्षमता पूरी

इस युग में।

फिर तुम को क्या?

तुम तो इनके सदा यशस्वी जनक कहे जाओगे।

कभी राम का युग आता है इस धरती पर,

और कभी रावण का।

ऐसे भी हैं मनुज यहाँ, जिनके पाँचों सुत,

राजनीति के पांचों वर्ग सम्हाल रहे हैं।

कर जलपान उठे,

तब मैने पूछाअब कब होगी भेंट?

बस प्रिय, इसको ही तुम अंतिम भेंट समझलो।

मैं सुरपति की इच्छा से आया था

इस धरती पर। ‘‘