देश मेरे !
जिन्दगी के आज इस अन्तिम प्रहर में
लिख रहा हूँ डायरी के पृष्ठ कुछ
जो वचन तुझको दिया था, वह निभाया है
प्राणपण से आज तेरा ऋण चुकाया है !
अटकते से आ रहे हैं श्वास
लड़खड़ाते चल रहे हैं हाथ
घूमता ही जा रहा है माथ।
वक्ष पर गोली लगी है,
जननि से कहना !
कि उसके दूध को मैंने नहीं रण में लजाया।
मैं खड़ा हूँ सिंहशावक की तरह
दस शत्रुओं को मार कर घायल हुआ हूँ।
दे दिया उत्तर उन्हें, जो कह रहे थे
शत्रु सैनिक एक है हम तीन पर भारी।

एक मैंने ही नहीं,
तेरे सभी रणधीर वीरों ने यही उत्तर दिया है।
किन्तु ये निर्लज्ज व्यापारी,
हमारे इस अमिट बलिदान को भी
स्वार्थ की ओछी तुला पर तोल देंगे।

देश मेरे !
आज चारों ओर तेरी यश-पताका झूमती है।
देख कर यह
रात के गहरे अँधेरे में,
चिलकती धूप-सी मुसकान, मेरे होंठ पर इतरा रही है।
मोर्चे से एक सैनिक, समझ कर बेहोश  मुझको
छोड़ खन्दक में गया है।
जब मुझे उसने उठाया पीठ पर अपनी
हुआ महसूस यह उस क्षण
कि सारे देश ने मुझको उठाया है!

देश मेरे!
आज कितनी कल्पनाएँ
सत्य बन कर सामने इठला रही हैं।
कभी बचपन में सुनी थी सहस्त्रबाहु प्रचंड की गाथा,
और सोचा था कि कितना झूठ दुनिया बोलती है।
एक मानव और भुजा हजार ?
इस अनूठी कल्पना पर हँसा बारम्बार

किन्तु इस रण में हुई यह कल्पना साकार।
आज प्रतिक्षण यही अनुभव कर रहा हूँ मैं
कि मेरी स्वयं नब्बे कोटि बाँहें है
और मेरे सुदृढ़ कंधों पर करोड़ों शीश।
दम्भ है जिनको हजारों साल तक वे रण करेंगे
भूलते हैं वे
कि मेरी बलवती बाँहें,
हजारों साल की तो बात क्या,
कुछ साल से ज्यादा उन्हें रिपु रूप में रहने न देंगी।
देश पर होंगे निछावर, ये करोड़ों शीश !
दम्भ रिपु का ये सबल भुजदंड देंगे पीस।।

देश मेरे!
सिर्फ मैं अभिमन्यु इस रण में लड़ा हूँ।
आज पहली बार अम्बर की घनी अमराइयों में उड़
किया है युद्ध मैने
क्रुद्ध रिपु के विकट सैबर जेट
मैने इस तरह तोड़े,
कि जैसे कभी बचपन में रहा हूँ
तोड़ता मैं विहंस माटी के घरौंदे।
और उसके दुर्ग सदृष अभेद्य पैटन टैंक,
मैंने इस तरह रौंदे,
कि उनके साथ रिपु का दम्भ,
मिट्टी में मिला है।
सच अगर पूछो, बताता हूँ तुम्हें मैं।
मैं निहत्था था तुम्हारे शत्रु के आगे।
शस्त्र उसके कहीं बढ़िया, कहीं ज्यादा थे।
किन्तु मैं बलिदान का रक्षाकवच पहने,
एकता की शक्ति लेकर भिड़ गया रण में ।
मैं बंधा था प्रिय तुम्हारे प्यार के प्रण में ।
शस्त्र मेरा बनी थी, वह अमिट प्रतिहिंसा,
जो हठीले शत्रु ने मुझ में जगाई थी।
और मैं जीता, यहाँ उस शक्ति के कारण।
और मैं जीता, तुम्हारी भक्ति के कारण।।
दशम गुरू का वाक्य मैंने सत्य कर दिखला दिया है-
‘मैं चिड़ियों से बाज पिटाऊँगा
सवा लाख से एक भिड़ाऊँगा!’
नैट से सैबर जेट के पिटने की भी यही कहानी,
शस्त्र नहीं लड़ते हैं रण में, लड़ती सदा जवानी !

मानता हूँ मैं,
जानता हूँ मैं, अभी यह युद्ध होगा।
बहुत दिन होगा।
क्योंकि रिपु के हृदय में,
जो ईर्ष्या का स्त्रोत है,
वह शान्ति का साधक उसे बनने न देगा।
किन्तु अब की बार, तेरी ओर से,
रण में लड़ेगा वह बली अर्जुन
कि जिसके वाण
भू, नभ, सिन्धु सबको बींध देंगे।

मृत्यु क्षण है पास !
फिर भी हँस रहा हूँ।
खिल रहा हूँ,
है मुझे विश्वास,

अर्जुन शत्रु से प्रतिशोध, कल मेरा चुकाएगा
मुर्ख रिपु का दम्भ मिट्टी में मिलाएगा।
और तेरी यश-पताका-
नील नभ की वादियों में जा उड़ाएगा।
कौरवों की हार होगी, पांडवों की जीत !
मैं सुनाऊँगा तुम्हें, नभ से विजय का गीत!

देश मेरे!
प्राण-प्यारी उत्तरा से बोल देना
वह न मेरे वास्ते आँसू बहाए।
प्यार से पाले,
परीक्षित कोख में उसकी रहा है पल।
और मेरे वंश में,
फिर आ रहा है क्रुद्ध जनमेजय।
मैं स्वयं ही जनम लूँगा।
तक्षषिला औ’ नागदाह अनेक,
मैं प्रत्येक सीमा पर बनाऊँगा
नाग-यज्ञ विशाल फिर भू पर रचाऊँगा।
मर रहा हूँ, पर तुम्हारे प्यार से मुखड़ा न मोडँगा
शीघ्र ही फिर जन्म लेकर,
शत्रु तेरा एक भी जीवित न छोड़ँगा।

देश मेरे,
दे मुझे आशीष
प्यार से इस मृत्यु-क्षण में दे यही बख्शीश ।
जन्म जब भी लूँ, तुझी में लूँ।
प्राण जब भी दूँ, तुझी को दूँ।

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