कब तक दबे रहेंगे हम तेरे ही अन्तर में –
उस दिन मुझसे भाव-भरे अरमानों ने पूछा !

कब तक हमें दिलासा देकर तू भरमाएगा
कब तक मधु का चषक अधर तेरे एक आएगा
पी पी कर कटु सत्य विश्व का प्रिय ! हम झुलस गए
तू छलिया छलता है हमको दे विश्वास नए
हमें मिटा दे और पलायन कर जा जीवन से
या फिर दृढ हो जूझ, निठुर युग के पागलपन से
कब तेरे अधरों पर खुल कर रास रचाएँगी –
उर में दबी हुई मादक मुस्कानों ने पुछा !
कब तक दबे रहेंगे  हम तेरे ही अन्तर में-
उस दिन मुझसे भाव-भरे अरमानों ने पूछा!

जीवन की दुविधाएँ पीकर मन बहलाने से
कुछ न बनेगा पीड़ा का परचम फहराने से
अंगारों को हिमकण कहकर खुद को छलता है
भूखे स्वाभिमान की छाया में क्यों पलता है?

अंधकार में रास रचाने से क्या लाभ तुझे
अपनी क्षमता से ही बनना है अमिताभ तुझे
सागर मंथन कर, विष-अमृत दोनों हँसकर पी,
जितने दिन जीना है धरती पर गौरव से जी।
और बता कितने दिन हमको दबा सकेगा तू-
अन्तर में हलचल करते तूफ़ानों ने पूछा ?
कब तक दबे रहेंगे हम तेरे ही अन्तर में –
उस दिन मुझसे भाव-भरे अरमानों ने पूछा ?

इससे बढ़कर क्या उन्मादीपन है जीवन में
हत्यारें के हित ममता रखता है मन में
तू करुणा की सुखद फुहारें जग कर बिखराए
और स्वार्थी जग तुझको उन्मादी बतलाए
अभिशापों में जीने का क्यों इतना चाव तुझे
चैन नहीं लेने देंगे अन्तर के घाव तुझे
बन्धनमुक्त बना जीवन को तोड़ श्रृंखलाएँ
आशाओं की वल्लरियों पर नए पुष्प आएँ
कब तक हमें उपेक्षा से ठुकराता जाएगा-
कब तक दबे रहेंगे हम तेरे ही अन्तर में –
उस दिन मुझसे भाव-भरे अरमानों ने पूछा?