मैंने विषसिक्त व्यथाओं से पूछा –
कब मुझे मिलेगी मुक्ति कहो ?
तपतीं पीड़ाओं में से एक हँसी,
बोली- यह ही अच्छा है शांत रहो।

यदि हम न तपाती तुझको कंचन सा
तेरी रचना के अधर न खुल पाते
यदि हम न तुझको आकर आँसू देतीं –
तुझसे तृष्टा के श्राप न धुल पाते।
हमने तुझको उन्नत भाषा दी है
कविता हित नित प्रति नूतन छंद दिए
जीना भी एक कला है जीवन में
इसलिए तुझे ये अंर्तद्वंद दिए
इनको अपनी रचना में ढालो तुम
युग को अपने अनुरूप बना लो तुम।
तट बनकर जीना भी क्या जीना है
तुम लहर बनो, सरिता के संग बहो
अथ में लेकर इति तक उद्विग्न रहो।।

विष की संज्ञा तूने हमको दी है
हम ही शिव को भगवान बनाती हैं
साधारण नर को अपने दंशन से
कवि के सिंहासन पर बिठलाती हैं।
हर व्यक्ति नहीं जी पाता जीवन में –
रो मत जीवन रोने के लिए नहीं।
आँसू को पानी की संज्ञा मत दे
आँसू मुखड़ा धोने के लिए नहीं।
परिमार्जित हम करती हैं अन्तर को
गाम्भीर्य सौंपती हैं मनु के स्वर को।
पगडंडी पर तो सब ही चलते हैं-
अपने हित कोई नूतन गैल गहो।
तुम लहर बनो, सरिता के संग बहो।।

हमको साधारण व्यथा समझ मत तू
हम क्षमताशाली पर ही आती हैं
युग की पीड़ा उसकी पीड़ा बनती
हम जिस पर अपना नेह लुटाती हैं
सुख शान्ति खोजने में मत समय गंवा
इनका जीवन से कुछ सम्बन्ध नहीं
वह जीवन भी क्या कोई जीवन है
जिसमें उठती पीड़ा की गंध नहीं।।
विषधर को अगर न तुम अपनाओगे
चंदनवन में कैसे रह पाओगो !
अपना तो है आशीष यही तुमको
अपने हित औ औरों के लिए दहो।
तुम लहर बनो, सरिता के बीच बहो।।

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