आज़ादी मिल गई, किन्तु आज़ादी का
जाने प्रिय ! क्योंकर होता आभास नहीं

दे अगणित बलिदान मिली यह आज़ादी
फिर भी पीड़ा भरी हुई है जीवन में
और विवशताँए जीवन की उसी तरह
उमड़ घुमड़ कर घूम रहीं मानव मन में
छलिया, कपटी अब भी बने हुए ठाकुर
मानव से करवाते हैं अपनी पूजा
क्योंकि शक्ति है उनके पीछे दानव की
अभी लगेगा समय बहुत, परिवर्तन में
पहले सी ही भूख तड़प बेचैनी है–
मानव के मुख पर कोई उल्लास नहीं ।
आज़ादी मिल गई, किन्तु आज़ादी का,
जाने प्रिय ! क्योंकर होता आभास नहीं।

अभी बहुत संघर्ष हमें करना होगा
तब आजादी की देवी मुस्कायेगी
दानव के हाथों से मदिरा का प्याला
जिस दिन टूटेगा, धरती हर्षायेगी
मानव मुख का ग्रास छीन करके दानव
जी भर कर मदिरा के चषक चढ़ाता है
धर कर हाथ हाथ पर बैठे रहे अगर
दानव की तृष्णा हम को पी जायेगी
जब तक दानव नहीं मिटेगा दुनिया से
आयेगा इस धरती पर मधुमास नहीं।
आजा़दी मिल गई, किन्तु आज़ादी का
जाने प्रिय ! क्योंकर होता आभास नहीं।
महा क्रान्ति की वेला लानी ही होगी
युग का भ्रष्टाचार मिटाना ही होगा
बन कर इन्द्र आज असुरों की सेना पर
अपना भीषण शण वज्र गिराना ही होगा
चोर बजारी, रिश्वतखोरी के हथियार
लेकर दानव घूम रहे हैं दुनिया में
छीन रहे हैं जिन के जीने का अधिकार
उनको वह अधिकार दिलाना ही होगा
यदि हम को अपने प्राणों का मोह रहा,
मानवता का होगा कभी विकास नहीं ।
आज़ादी मिल गई, किन्तु आज़ादी का
जाने प्रिय ! क्योंकर होता आभास नहीं।

हमको वह असली आज़ादी लानी है
जिसमें सब मानव मानव बन एक रहें
तेरा दुःख मेरा दुःख हो जाए साथी।
दुःखी देख कर तुझ को मेरे अश्रु बहें
खाने को दो ग्रास सभी को मिल जाएँ
भूख भाग जाए दुनिया के आँगन से
झिझक न रह पाए मानव के अन्तर में
एक दूसरे से खुल कर निज बात कहें ।
हम को यह बस करके दिखलाना होगा —
वरना फैलेगा, भू पर मृदुहास नहीं ।
आज़ादी मिल गई, किन्तु आजादी का
जाने प्रिय ! क्योंकर होता आभास नहीं।

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