एकता बोली–सुनो कवि !
चाहते हो यदि विजय आकर तुम्हारा पथ बुहारे।
चाहते हो यदि पराजित शत्रु चरणों को पखारे।
राष्ट्र के हर व्यक्ति से कह दो करे सम्मान मेरा
मैं तुम्हारे राष्ट्र के हर व्यक्ति हित संजीवनी हूँ
मैं रहूँ जिस राष्ट्र में वह हो पराजित-
आज तक सम्भव कभी यह हो न पाया !
पूछ लो इतिहास से तुम शक्ति मेरी।
करो निश्छल भाव से तुम भक्ति मेरी।
राष्ट्र यदि बँध जाय मेरे साथ प्रण में
मैं जिताऊँगी तुम्हें हर एक रण में।
साधना से यदि मुझे तुम साध पाओ
राष्ट्र-हित रक्षा कवच मुझको बनाओ।
विषमता का विष पिये हर व्यक्ति मन से
मिलेगी क्षमता उसे तब राष्ट्र के प्रत्येक कण से।
स्वतः मेरे कंठ से यह शब्द निकले –
एकता की जय।
एकता ही करेगी इस राष्ट्र को निर्भय।।
ध्यान से सुन देशवासी।
एकता से बड़ा कोई मन्त्र दुनिया में नहीं है।
संगठन से बड़ा कोई यन्त्र दुनिया में नहीं है।।
तब कहा बलिदान ने सुन राष्ट्र चारण।
चाहते हो यदि विजय आकर तुम्हारा भाल चूमे
चाहते हो यदि पराजित शत्रु तज कर शस्त्र घूमें-
और रण से भाग जाए
राष्ट्र के हर व्यक्ति से कह दो मुझे मन में बसाये।
दे हृदय मेंस्थान,
मैं करूँगा तब तुम्हारे राष्ट्र का गुणगान।
मैं रहूँ जिस व्यक्ति के अन्तःकरण में
वह नहीं फिर समझता है भेद जीवन और मरण में।
मृत्यु बन चेरी, जिताती है उसे हर एक रण में
मैं जहाँ होता,
वहाँ पर युद्ध के नक्शे बदलते हैं क्षणों में।
दहकते अँगार हैं तब रजकणों में।
त्राहि-त्राहि पुकारता रिपु भागता है।
ध्यान से सुन पुकारता रिपु भागता है।
ध्यान से सुन राष्ट्र-चारण!
मैं नया इतिहास लिखवाता रहा हूँ।
बन अडिग विश्वास मुस्काता रहा हूँ।।
स्वतः मेरे कण्ठ से यह शब्द निकले –
हो अमिट बलिदान की जय
है जहाँ बलिदान की यह भावना “वह राष्ट्र अक्षय”!
लक्ष्मी बोली, सुनो तुम राष्ट्र गायक
चाहते हो यदि तुम्हारा राष्ट्र बन कर रहे नायक।
चाहते हो यदि विजय वरमाल पहनाये विहँस कर।
चाहते हो राष्ट्र में हर ओर से उत्थान के स्वर।।
तो करो आहवाह्न मेरा।
मैं श्रमिक की बाँह में हूँ।
मैं कृषक की चाह में हूँ
मैं वणिक की राह में हूँ।
एक सैनिक मोर्चे पर शत्रु से है युद्ध में रत
दूसरा सैनिक कृषक बन खेत में हल जोतता है।
लहलहाती फसल बन करके वहाँ मैं झूमती हूँ।
तीसरा सैनिक श्रमिक बन,
कारखाने में लगता रात औ’ दिन
मैं वहाँ पर शस्त्र बन कर, राष्ट्र की रक्षार्थ –
प्रतिक्षण चण्डिका बन घूमती हूँ।
और चौथा बन वणिक,
संक्रान्ति के इस काल में,
हर व्यक्ति को सहयोग देता हो हृदय से
मैं वहाँ पर सम्पदा बन मुस्कराती
औ’ विजय को पास हूँ अपने बुलाती !
मैं जहाँ पर हूँ,
नहीं, वह राष्ट्र हो सकता पराजित।
तुम करो आहवाह्न मेरा,
साथ ही सीखो कि होता किस तरह सम्मान मेरा
मोह से मुझको न बाँधो।
राष्ट्र की रक्षार्थ, मुझ को मुक्त कर दो।
मोर्चे पर लड़ रहे जो दो उन्हें सहयोग,
आएगा निश्चित स्वयं चल कर विजय का योग।
स्वतः मेरे कंठ से यह शब्द फूटे-
लक्ष्मी की जय।
लक्ष्मी यदि राष्ट्र पर बलिहार हो तो है विजय निश्चय।
——–