पंख यदि होते खुले मैं उड़ तुम्हारे पास आता
देखता संसार में फिर कौन मुझको रोक पाता।।

 क्या समझता मीत मैं संध्या उषा की लालिमा को
चीर जाता मैं अमावस की भयावह कालिमा को
रवि किरण जी भर जलाती, गगन की उत्तप्त छाती
पर तुम्हारा प्यार मेरे पंथ को शीतल बनाता
देखता संसार में फिर कौन मुझको रोक पाता

रूप की रानी मुझे बन्दी बना कर गा रही है
गीत में प्रिय के कुछ भाव से दिखला रही है
मैं यहाँ बन्दी मगर मेरे हृदय बन्दी नहीं है-
क्यों नहीं भगवान उस उन्मादिनी को यह बताता
पंख यदि होते खुले मैं उड़ तुम्हारे पास आता।।

सोचती हो तुम, तुम्हें मैं छोड़ आया तोड़ बन्धन
प्यार के बन्धन कहो,प्रिय तोड़ पाया कौन सा तन,
जो तुम्हारा मन कहे, आरोप वह मुझ पर लगाओ-
काश होता पास तुम को चीर कर यह दिल दिखाता
देखता संसार में फिर कौन मुझको रोक पाता

याद में बैठी दृगों से प्राण नीर बहा रही हो
है न परदेसी किसी का हृदय को समझा रही हो
किन्तु फिर भी देखती हो राह लेकर चाह मन में-
जब कभी वह भाव आता है तभी मुझको रुलाता
पंख यदि होते खुले मैं उड़ तुम्हारे पास आता।।

लो सुनो वह रूप की रानी मनाने आ रही है
प्यार से कूटी हुई चूरी खिलाने आ रही है
मैं सहस्रों बार इस नादान को समझा चूका हूँ
जड़ चुका है चाँद का तो चाँदनी से मौन नाता
पंख यदि होते खुले मैं उड़ तुम्हारे पास आता।।

मैं न दूँगा किन्तु यह पिंजरा सदा देगा गवाही
भूल से पथ भूल करके आ फँसा था एक राही,
खा गई उसकी हठीली नाग-कन्या काल बन कर
मर गया वह भी हठीला प्रिय विरह के गीत गाता
पंख यदि होते खुले मैं उड़ तुम्हारे पास आता।।

बन्द करना द्वार यदि एक क्षण को भूल जाए
मैं न फिर बन्दी रहूँगा जाल कोई भी बिछाए
चीर जाऊँगा नशीले बादलों की छातियों को-
आ मिलूँगा प्राण तुम को प्यार से फिर मुस्कराता
पंख यदि होते खुले मैं उड़ तुम्हारे पास आता।।

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