पुरवैया के नूपुर बजते छूम छनन छन,छन छन।
दशों दिशायें स्वर धाराएँ, बिखरने को उन्मन।।

नर्तन करती पुरवैया के पग की थिरकन पाकर
मत्त मयूरा कुहका अगणित अर्ध चन्द्र फैलाकर
अलसाई सी प्रकृति नटी ने भी फिर ली अंगड़ाई
प्रिय दर्शन कर मानो कोई वैरागिन बौराई
नन्ही नन्ही बुँदिया बरसीं धरती के आँगन में
अति नूतन उल्लास छा गया नील गगन के मन में
मेघों के अन्तर में, कौंधी तब विद्युत की तड़पन।
पुरवैया के नूपुर बजते छूम छनन छन,छन छन।।

पावस की दुती बन आई अल्हड़ पुरवाई
इंद्र धनुष बन उसकी सतरंगी चूनर फहराई
मेघों के छौने उसके इंगित पर स्वर लहराते
प्यासी धरती के अधरों पर अमृत कण बिखराते
सौंधी सौंधी गंध धरा के अंतस्थल में जागी
ज्यों द्वित्या का चाँद देख मन होता है अनुरागी
या पा प्रिय का स्पर्श सिहरता है जैसे क्वारा तन।
पुरवैया के नूपुर बजते छूम छनन छन, छन छन।।

पुरवैया की नूपुर ध्वनि सुन काँपी ग्रीष्म हठीली
पिऊ पिऊ कह प्यासे चातक ने छेड़ी तान रसीली
जिधर जिधर चलती पुरवैया नूपुर ध्वनि लहराती
पीड़ित प्राणों की वीणा में नए राग उपजाति
गीतों की लहरें लहराती हुईं कृषक बालायें
मानो चौदस के चन्दा की चढ़ती हुई कलायें
पुरवाई के स्वागत में हर्षित धरती का यौवन।
पुरवैया के नूपुर बजते छूम छनन छन, छन छन।।

सावन भादों के नूपुर पहने पुरवैया रानी
रस बरसाती, गीत सुनती, कहती प्रणय कहानी
जादू सा है पुरवैया की पग थिरकन के स्वर में
प्रणय हिलोरें लगीं उमड़ने हर सूने अन्तर में
मेरा मन भी फिर अतीत के कुंजों में भरमाया
क्या प्रिय ! तुमको नहीं याद कोई परदेसी आया?
बिना बताये तुम्हें बढ़ चलो होगी उर की धड़कन।
पुरवैया के नूपुर बजते छूम छनन छन, छन छन।।

पुरवैया के नूपुर सुन कर सूखे ताल तलैया
मुझसे बोले –“गा कवि ! तू भी नाच रही पुरवैया
छा जाएगी प्रिय ! फिर से हम पर उन्मत्त जवानी
कोई कान्ह मनायेगा, फिर रूठी राधा रानी। ”
प्रिय ! मेरे गीतों पर छाई विरह मिलन की पीड़ा
जाग्रत हो उन्माद लगा करने अन्तर से क्रीड़ा
गीतों के स्वर लगे संजोने आकुल उर का क्रंदन
पुरवैया के नूपुर बजते छूम छनन छन,छन छन।।

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