मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
अम्बर पर जितने तारे, उतने वर्षों से,
मेरे पुरखों ने धरती का रूप संवारा।
धरती को सुन्दरतम करने को ममता में,
बिता चुका है कई पीढ़ियाँ वंश हमारा।।
और अभी आगे आने वाली सदियों में,
मेरे वंशज धरती का उद्धार करेंगे।
इस प्यासी धरती के हित में ही लाया था
हिमगिरि चीर, सुखद गंगा की निर्मल धारा । ।
मैंने रेगिस्तानों की रेतें धो धो कर —
वन्ध्या धरती पर भी स्वर्णिम पुष्प खिलाए।
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
यह गर्वीला, उन्नत, मनहर ताजमहल है,
मानो हो साकार, प्यार भू पर आया है।
इसे देख कर चाँद सितारों से कहता है,
रजत राशि ने कितना मुग्ध रूप पाया है।।
शाहजहाँ की प्रीति अमर हो गई जगत में
शहंशाह होने का उसने लाभ उठाया-
उसका क्या था,पैसा ? वह भी जनता का था-
मेरी मेहनत ने ही सब कर दिखलाया है
इन हाथों में लेकर छैनी और हथौड़ी –
मैंने प्रस्तर के भी सोए प्राण जगाए।
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
मिट्टी गला गला कर ईंटें बना बना कर,
वंश हमारा इसे निरन्तर रहा बनाता।
नर-नारी, बूढ़े- बच्चे सब लगे हुए थे,
इनको बनते देख रहा था स्वयं विधाता।।
कब दिन बीत गया इसका भी ध्यान नहीं था
कब निशि बीत गई इसका अनुमान नहीं था
शीत, ग्रीष्म की भी कोई पहिचान नहीं थी
लगे रहे अगणित वर्षों इसके निर्माता
बच्चे हुए जवान, युवक बूढ़े बन बैठे-
इसे बनाते कितनों ने ही प्राण गँवाए
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
जितनी बार धरा भूचालों से फटती है
मेरी कृतियाँ भू अन्तर हित हो जाती हैं।।
कभी पर्वतों की मालाएँ हिल उठती हैं
अमर साधनाएँ जीवन की सो जाती हैं
कई महंजोदाड़ो और हड़प्पा भू के
अन्तर में कहते रहते है अपनी गाथा,
जब भीषण जल प्लावन आते हैं धरती पर
कितनी तक्षशिलाएँ उनमें खो जाती हैं ।।
पर जब तक मैं हूँ धरती को चिन्ता ही क्या-
चाहे सृष्टा इसको स्वयं मिटाने आए।
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
अपने नहीं अभाव मिटा पाया जीवन भर
पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ।
तूफानों, भूचालों की भयप्रद छाया में
मैं ही एक अकेला हूँ जो गा सकता हूँ।
मेरे मैं की संज्ञा भी इतनी व्यापक हैं
इसमें मुझसे अगणित प्राणी आ जाते हैं
मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है;
मैं खंडहर को फिर से महल बना सकता हूँ
जब जब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं
प्रलय, मेघ, भूचाल देख मुझको शरमाए
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
नहीं पुरानी बात, बात तो है कल की
मानव ने जब मानवता का गला दबाया
हिरोशिमा, नागासाकी से नगर रंगीले
पलक झपकते उन्हें धूल-धूसरित बनाया
वह एटम की शक्ति गर्व है उस पर जिनको
वह उनको भी स्वयं किसी दिन खा जाएगी
पर मैं हर खंडहर से ईंटें रहा उठाता
फिर देखो ! उन पर नूतन जीवन लहराया
मैं मेहनत से सींच रहा जगती की क्यारी-
ताकि धरा फिर नवल नशीले गीत सुनाए
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
युगों-युगों से इन झोपड़ियों में रहकर भी
औरों के हित लगा हुआ हूँ महल सजाने
ऐसे ही मेरे कितने साथी भूखे रह
लगे हुए हैं औरों के हित अन्न उगाने
इतना समय नहीं मुझको जीवन में मिलता
अपनी खातिर कुछ सुख के सामान जुटा लूँ
पर मेरे हित उनका भी कर्तव्य नहीं क्या
मेरी बाहें जिनके भरती रही खजाने
अपने घर के अन्धकार मुझे न चिन्ता
मैंने तो औरों के बुझते दीप जलाए।
मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या-
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।।
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