इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।
तुम भला प्रेम को क्या जानो
कोई प्रेमी हो पहिचाने
कह साधक एक हमारा तू
बन गए हृदय -धन मनमाने
अभिमान भरा यह प्रेम यहाँ
स्वीकार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
माना, तुम मेरे प्रियतम हो
माना, मैं एक पुजारी हूँ
तुम प्रतिमा हो, मन मन्दिर की
मैं सुन्दर कला तुम्हारी हूँ
पर तुम्हें रिझाने को मैंने
श्रृंगार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
मैं कितने गीत सुना बैठा
अब गीत सुना दो तुम अपना
मैंने जितने सपने देखे
उनमें देखा प्रियतम अपना
वह कौन साहसी, मुझे कहे
तू प्यार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
मैं, जिधर चलूँ पथ उधर चले
मैं काया हूँ पथ छाया है
आ देव, तुम्हारे मन्दिर में
छाया को आज मिटाया है
मेरा साथी, पथ या तुम हो
इनकार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
इच्छा हो तो अपना लेना
इच्छा हो तो ठुकरा देना
मेरे इस उन्मादीपन पर
इच्छा हो तो मुस्का लेना
तुम अपने हो, अपनों से प्रिय
तकरार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
है मूक आज उर की वीणा
हैं टूट गईं इस की तारें
क्या कहा ! सुननी ही होंगी
तुम को वीणा की झंकारे
इकरार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
मैं लाखों जीवन छोड़ चुका
मैं लाखों बन्धन तोड़ चुका
युग बीत गए, तब से ही मैं
प्रिय! तुमसे नाता जोड़ चुका
पर मुँह पर कुछ, मन में कुछ, यह–
व्यवहार न करना सीखा है।
इस जगती में आकर मैंने
मनुहार न करना सीखा है।।
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