इतने कोलाहल में भी सूनापन
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन

कॉफी के घूँट, कहकहे, मित्र अनेक,
मित्रता निभाने की गर्वीली टेक।
ऊपर से नेह भरी मीठी बातें
अन्तर में पलती रहती हैं घातें।
कहने को इतना कुछ, पर कौन कहे ?
इस रेतीली सरिता में कौन बहे ?
हैं कौन बबूल, कौन इन में चन्दन ?
कृत्रिम उपकरणों के इन पर बन्धन।
इतने कोलाहल में भी सूनापन
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन

कुछ अर्थहीन मुस्कानें घूम रहीं,
सूखे पीड़ित अधरों पर झूम रही।
इस महानगर की धरती पर कहते
युग बीत गया अपनी गाथा कहते
पर कोई सच्चा श्रोता नहीं मिला,
एक भी सुगंधित पुष्प न कभी मिला
मुसकानों में से झांक रहा क्रन्दन –
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन।
इतने कोलाहल में भी सूनापन
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन।

गर्दन से लिपट रही उनकी बाहें,
पहचान न पाया मन उनकी चाहें।
चुम्बन में भी जहरीला तीखापन,
घुस गई कपोलों में उत्तप्त चुभन।
फिर भी मैंने कह दिया कि तुम अपने,
मानो जाग्रति में दीख रहे सपने।
शीतलवाणी में पिघली हुई तपन,
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन।
इतने कोलाहल में भी सूनापन
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन।

हर कदम-कदम पर गहरी खाई है,
प्रत्येक साँस में पीर समाई है।
भीतर से रोते, ऊपर से गाते,
छलना के इंगित पर हम मुसकाते।
इस कृत्रिमता से मन अकुलाता है,
अकुलाहट है, फिर भी मुसकाता है।
पुरजन, परिजन से घिरा हुआ जीवन,
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन।
इतने कोलाहल में भी सूनापन
अक्सर अनुभव करता है मेरा मन।