मेघ ने सौदामिनी से कह दिया है –
तू बिना पूछे न धरती पर गिरा कर!
स्वाति, चातक, मोर मेरे हित तरसते।
देख उनका मोह मेरे दृग बरसते।
औ’ कृषक-सुकुमारियाँ जब गीत गातीं
गीत के हर बोल में मुझको बुलातीं।
मैं धरा-हित नेह की गंगा बहाता।
औ’ तृषातुर धरणि को अमृत पिलाता।
तू अचानक ही हठीली क्रोध से भर।
है जला देती किसी का नीड़ सुखकर।
धवल यश मेरा मिटाती है सदा तू,
तू बिना पूछे न धरती पर गिरा कर !
मेघ ने सौदामिनी से कह दिया है –
तू बिना पूछे न धरती पर गिरा कर !
चन्द्रमा ने चाँदनी से कह दिया है-
“तू बिना पूछे न धरती पर घिरा कर !
मैं वियोगिन की कहानी जानता हूं
और उसकी पीर को पहचानता हूं
मैं असंखयक गीत भू को दे चूका हूं
अति मधुर आशीष उससे ले चुका हूं
और तू विरही जनों पर घात करती
देख तुझको है व्यथा उनकी उभरती
सुन किसी विरही मनुज का दुःख भरा स्वर
पीर मेरे वक्ष में जाती स्वयं भर।
तू करे उत्पात, मैं निर्मम कहाऊँ –
तू बिना पूछे न धरती पर घिरा कर !
चन्द्रमा ने चाँदनी से कह दिया है-
“तू बिना पूछे न धरती पर घिरा कर !
गीत ने उन्मादिनी से कह दिया है-
गुनगुनाती तू यूँ मुझको फिरा कर !
मैं किसी कवि के हृदय से जन्म लेकर
प्यार की गहराइयों को दीप्ती देकर
मैं मनुज मन की उदासी हर रहा हूं।
घाव हर पीड़ित हृदय का भर रहा हूं।
मैं मनोरंजन नहीं, संवेदना हूं,
साधना हूं, सृष्टि की आराधना हूं।
तू मझे स्वर में न भर कर, याचना कर !
याचना पर बिखरते हैं व्यंग्यमय स्वर
व्यंग्य की दुनिया नहीं मेरे लिए है-
गुनगुनाती तू न यूँ मुझको फिरा कर !
गीत ने उन्मादिनी से कह दिया है –
गुनगुनाती तू न यूँ मुझको फिरा कर !