एक मित्र का पत्र गाँव से कल आया है,
लिखता है: ‘तुम भारत के दिल में रहते हो,
यौवन की सरिता में अंगडाई लेते हो,
जीवन की उद्दाम तरंगों में बहते हो ।

सचमुच भारत का दिल ही तो है यह दिल्ली,
राग-रंग से भरी, भाव-मुक्ताओं वाली,
अपनी मादक गंध बिखेर रही हो जैसे…-
उपवन में उन्मुक्त, मुग्ध, मादक शेफाली !’

और लेखनी रुकी नहीं है उसकी मुझ पर,
करने से कटाक्ष देने से जी भर ताने ।
ताने भी ऐसे जिनमें लिपटी है ममता,
उसके अन्तर में उपजे होंगे अनजाने।

लिखता है वह -‘कनाट प्लेस’ चाँदनी चौक में,
अप्सरियाँ फिरती हैं, देवपुत्र इतराते,
तुम भी उन अप्सरियों के संग देवपुत्र सम –
घूमा करते होंगे यौवन में मदमाते !

अब न गाँव का मठा तुम्हें बिलकुल रुचता है,
सूरा तुम्हारे अधरों पर करती अठखेली,
छंदों की भाषा में तुम बातें करते हो !
अपने लिए तुम्हारा जीवन एक पहेली !

तुम्हें उर्वशी-रम्भा के नखरों के आगे,
सूझ न कुछ पाता होगा साथी मदमाते,
फैशन की बस्ती में तुम सपनों के राजा
उलझी अलकें ही प्रति क्षण रहते सुलझाते !

याद भला अब तुम को कैसे आ सकता है ;
वह भीमा दर्जी का भोला छोरा कालू ,
बने मदारी जिसे नचाया करते थे तुम
बार-बार कह-कह कर अपना प्यारा भालू।

जो कि तुम्हारी खातिर चढ़ कर के बेरी पर,
खुद काँटे खाता था तुमको बेर खिलाता,
शवरी के बेरों से क्या वे कम मीठे थे ?
कैसे भूल गए तुम उसको युग-निर्माता !

याद भला कैसे अब तुम को आ सकता है
वह नन्दू कहार का छोरा मस्त कन्हैया।
तेरी खातिर तोड़ सिंघाड़े ले आता था,
नहीं डरा सकते थे उसको लाल-ततैया।

रधिया भरी जवानी में बूढ़ी लगती है,
नहीं लिखूँगा उसकी पूरी यहाँ कहानी,
शायद तेरे पत्थरदिल में करुणा जागे,
तेरी निर्जल आँखों में भर आए पानी।

गोप-गोपियाँ छोड़ गए थे जैसे कान्हा,
वैसे ही प्रिय आज हमें तू ने बिसराया,
मोटी चाची  आँसू भर-भर कर कहती है –
पगला दिबुआ हम से कभी न मिलने आया।

अब भी ताऊ डम्बर सिंह सदा सोते क्षण,
आलू सकरकंद धर जाते हैं, अलाव में,
बड़े भोर में तू चोरी-चोरी आएगा,
संचित है यह सपना उनके मधुर चाव में।

दिल्ली की गलियों में ऐसा क्या है भाई !
जिसने तेरे मन की ममता आज सुखाई,
नदी किनारे अब भी तुझे पुकार रही है,
किसी डूबते सूरज की फीकी अरुणाई !’

पत्र बहुत लम्बा है अक्सर मित्र बहक कर –
जी भर कर देता है, मुझको तिश्ने ताने
पढ़ते-पढ़ते उसकी स्याही धो देते हैं,
बरस-बरस करके मेरे लोचन दीवाने  !

संघर्षों में उलझे मेरे तन-मन दोनों,
ऊपर से खिलते हैं भीतर से उदास हैं,
अपनेपन का कुछ आभास नहीं देते हैं,
रहते जो प्राय: जीवन के आसपास हैं।

मित्र शब्द का मूल्य यहाँ इतना सस्ता है,
आँखों से ओझल होते हालत खस्ता है,
जिन फूलों की गंध न अब तक परख सका मैं,
सजा हुआ उनसे जीवन का गुलदस्ता है।

यह शहरी सभ्यता देवताओं की नगरी,
अपने से अतिरिक्त नहीं कुछ दिख पाता है,
हर मानव निज आपाधापी में उलझा है,
अपनी पीड़ा में ही उलझा मिट जाता है !

ऊपर से देवता, किन्तु भीतर से दानव,
छल से भरी हुई मुसकानें फीकी, थोथी,
जिल्द बहुत बढ़िया है, आकर्षित करती है,
पढ़ने को कुछ नहीं यहाँ, कोरी है पोथी।

अक्षर भी हैं कुछ, लेकिन अस्पष्ट लिखे हैं,
पढ़ते और समझते उम्र गुजर जाती है,
मरू-मरीचिका में भटके मृग के समान मैं,
रेतीले टीलों में प्यास न बुझ पाती है।

देव-दानवों में व्यापक संघर्ष छिड़ा है,
मानव दबा हुआ है चाकी के पाटों में,
जीवन की गति उस बदकिस्मत नैया-सी है,
फंस जाती है जो प्रिय ! पथरीले घाटों में।

बहुत चतुर मांझी बनकर जीना पड़ता है,
हँस -हँसकर  प्रिय तरल गरल पीना पड़ता,
उस काँटे को भी दुलराना पड़ जाता है,
जान-बूझकर जो इन पैरों में गड़ता है !

शहद भरी मुसकान  सभी घर रख आते हैं,
बाहर आते हैं लेकर फीकी मुसकानें
यह शहरी सभ्यता बड़ी अदभुत है भाई !
अनजाने से लगते सब जाने-पहचाने !

सब कागज के फूल सूँघते रहें हैं,
अपना समझ यहाँ सब रहते हैं गैरों में !
मानवता के त्रास टंगे सब की छाती पर,
मानवता की लाश दबी सबके पैरों में !

पाउडर के गर्दे में छिपी हुई रेखाएँ,
मन के भाव किसी के हम कैसे पढ़ पाएँ ?
सिगरेट के धुएँ-सी हल्की क्षीण सान्त्वना,
अक्सर ही रहती है अपने दाएँ-बाएँ !

देव दानवों की इस गर्वीली नगरी में,
अक्षर अति  सुन्दर है पर भाषा विचित्र है।
इस शीशी की गन्ध  परखनाअति मुश्किल है,
आकर्षित लेबल पर जिसके लिखा इत्र है।

एक बात तो बता कि तूने कभी गाँव में,
भूखे पेट किसी को मर जाते देखा है ?
या चौराहों पर लाशें सोती देखी है ?
कानों को आँखों पर झुँझलाते देखा है ?

सुनी-सुनाई बात यहाँ  सच्ची कहलाती,
आँखों देखी बात यहाँ झूठी होती है,
यह शहरी सभ्यता तमाशा कठपुतली का
एक आँख से हँसती, दूजी से रोती है !

    नई सभ्यता की इस हरियाली घाटी में,
जीवन की कटुताओं का आसव पीता हूँ,
जिनके नाम गिनाए हैं तूने पाती में,
उनकी ममता के प्रकाश से ही जीता हूँ।

तेरा पत्र कभी जब आ जाता है, साथी !
लगता है कुछ गंधयुक्त साँसे बाकी हैं,
वरना हम सब यहाँ यंत्रवत घूम रहे हैं,
घिरे भीड़ में रहते फिर भी एकाकी हैं।

अच्छा, मित्र ! विदा, मुझ को नींद आ रही,
सूने सपने होंगे मेरे इन्तजार में,
मेरी गति इस क्षण इस अदभुत यात्री-सी है,
एक चरण जिसका तट पर है, एक धार में

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