एक दिवस पाकर कुछ सूने क्षण,
लगा पूछने मुझसे मेरा मन !

सावन कब आया, कब बीत गया ?
मेघों ने कब छेड़ा राग नया ?
इंद्रधनुष ने कब ली अंगड़ाई ?
शरद-पूर्णिमा कब भू पर आई ?
कब वसन्त मुसकाया मधुबन में ?
कब गुलाल इतराया आँगन में ?
क्या इनसे तेरा सम्बन्ध नहीं ?
भाती क्या पाटल की गंध नहीं ?
समझ नहीं आता यह परिवर्तन
लगा पूछने मुझसे मेरा मन !

मैं बोला- मैं अभी बताता हूँ
खोल डायरी सब समझाता हूँ
ये सब कब आए, कब बीत गए
देकर के कुछ अनुभव नए-नए

महानगर में बरखा आती है
पर सावन को संग न लाती है।
शरद पूर्णिमा भवनों की छत पर
कर विश्राम लौट जाती है घर।
इन सबसे सम्बन्ध न रख पाता –
घनी विवशताओं वाला जीवन।

पिचकारी भी प्रथा निभाती है
रंगों की बौछार न आती है
बैठ, आज कर लें इसका लेखा
हमने क्या इस जीवन में देखा।
लगता है, हर मनुज यहाँ प्यासा
बदल रही है गीतों की भाषा
ऊपर हँसी और भीतर क्रन्दन।
सिगरेट के धुएँ के संग चिन्तन !
तुझसे कोई बात अपरिचित है ?
बिना श्रृंखला के अगणित बंधन।

बहुरुपिन बन फिरती यहाँ व्यथा
सहस्त्रमुखों से कहती मर्म-कथा
अधर ढो रहे मुसकानों के शव
हुआ शोर में परिवर्तित कलरव
चौराहा आँगन तक बढ़ आया
कोलाहल ने नया रूप पाया।
सपनों में दिखते विकृत चेहरे
आँखों में ले भाव विपुल गहरे!
आज याचना में मिल रही चुभन
भरी भीड़ में खो जा, मेरे मन!