हल्दी घाटी की साँझ गुँजाती चली शब्द यह बार-बार।
ओ नीला घोड़ा रा सवार, ओ नीला घोड़ा रा सवार।
उस नीले घोड़े का सवार, राणा प्रताप योद्धा मानी
हल्दी घाटी के महा समर का प्रबल प्रतापी सेनानी
उसकी हुंकारों से नभ हिलता था, धरती शर्माती थी
उसकी बाँहों की छाया में मानवता थकन मिटाती थी
उसकी पूजा कर स्वयं शक्ति, हँस कर वरमाल पिन्हाती थी
उसके डर से दिल्लीपति को निशि वासर नींद न आती थी
वह आज प्रात उतरा था, हल्दी घाटी के भीषण रण में
वह बँधा हुआ था देश जाति की रक्षा के दृढ़तम प्रण में
होकर निज चेटक पर सवार, ले कर में प्रलयंकर भाला।।
शिव के उस परम उपासक ने अरि रूपी सागर मथ डाला।।
वह बली मान का मान धूल में मिला गरजता जाता था
गर्वीले चेटक की गति से उन्मत्त पवन शर्माता था
जिस ओर प्रतापी मुड़ता था, उसकी तुफानी गति निहार।
कहते थे रिपु सँभलो आया, यह नीले घोड़े का सवार।।
घिर गया केहरी, गज समूह में, पर कब डरने वाला था
जब तक उसकी फौलाद मुट्ठी में चिर संगी भाला था
वह यवन-सैन्य के सिन्धु बीच, हो चेटक नैया पर सवार
भाले की कर पतवार काटता था रिपुदल की प्रबल धार
वह चतुर खिवैया, साहस की अनुपम सीमा दर्शाता था
रिपुदल की चपल तंरगों को पीछे खदेड़ता जाता था
घायक चेटक के घावों से शोणित के झरने बहते थे
आफत में फँसा न स्वामी को गर्वीले चेटक, कहते थे
तब तक झाला की दृश्टि पड़ी, राणा को घिरे हुए देखा
वह पलक झपकते, द्रुतगति से पहुँचा ज्यों विद्युत की रेखा
उसने राणा का मुकुट तभी फिर अपने सिर पर धार लिया।
रिपुदल को धोखा हुआ, चतुर चेटक ने उन्हें उबार लिया।
चलते चलते तब राणा के कानों में आई यह पुकार।
हो सावधान, हो सावधान, ओ नीला घोड़ा रा सवार।।
पहिचाना-सा स्वर लगा, रूक गया नीले घोड़े का सवार
यह कौन मुझे, प्रिय सम्बोधन के साथ बुलाता बार-बार
पथ मे बह रहा ‘बलीचा’ नाला चेटक फाँद गया पल में
घायल था तो क्या हुआ शंभू के नन्दी जैसा था बल में
जैसे ही चेटक से उतरा, चेटक गिर गया वहीं भू पर
मेरे प्रिय ! मेरे प्राण ! मित्र ! कह रूद्ध हुआ राणा का स्वर !
औचक ही जो मुड़ कर देखा, दो यवन पड़ गए दिखलाई
आँखों का पानी सूख गया, विद्युत-सी उनमें लहाराई
झट कटि से खाँडा खींच लिया, भाले को साध लिया कर में
दिन भर का थका हुआ राणा, फिर हुँकारा भैरव स्वर में
पर इनका तो स्वर नहीं, मुझे जो करता जाता सावधान
वह कौन मित्र ! मेरी रक्षा हित आकुल जिसके हुए प्राण
होगा कोई मन मीत, हृदय में रह रह आता था विचार।
फिर अन्तरिक्ष में गूँज उठा, ओ नीला घोड़ा रा सवार।।
इतने में देखा शक्तिसिंह, वह कुलांगार अपना भाई
वह देशद्रोह की मूर्ति, शत्रु से मिल बैठा अन्यायी
समझा राणा ने, शक्तिसिंह प्रतिशोध चुकाने आया है
भाई की हत्या का माथे पर तिलक लगाने आया है
शैशव आँखों में घूम गया, अन्तर में करुणा लहराई
ओ नियति नटी तेरा लेखा मानव की दृष्टि न पढ़ पाई
शैशव में झूठे ही झगड़े पर रूठ कभी यह जाता था
मैं बड़े प्यार से शक्ता कह-कह कर तब इसे मनाता था
इसके अन्तर में भी मेरे प्रति स्नेह सिन्धु लहराता था
पर वाह ! भाग्य की रेख, आज यह मुझे मिटाने आया है
पीकर भाई का रक्त हृदय की तपन बुझाने आया है
इतने में शक्ता ने यवनों को घेर किया उन पर प्रहार।
क्षण भर में उस बलशाली ने उनके टुकड़े कर दिए चार।।
कुछ समझ न आया यह नाटक का दृष्य अजब परिवर्तनमय
अपने कर से प्रतिशोध चुकाने का इसके मन में निश्चय
यह सोच रहे थे राणा! देखा, शक्ता पास तभी आया
कर में नंगी तलवार, अश्व से उतर, नेह से मुस्काया
आँखों में आँखें गड़ा, उन्होंने एक दुसरे को देखा
लगता था पगली नियति चुकाने बैठी है अपना लेखा
बोले राणा– कर वार, वक्ष है मेरा इस क्षण खुला हुआ
तू खूनी प्यार बुझाने को उन्मादी बन कर तुला हुआ
तू छोटा है, कर वार, तुझे देता हूँ मैं पहला अवसर
सहने को वज्र प्रहार वक्ष अपना भी सत्वर कर तत्पर
क्या सोच रहा कर वार, चूक मत, शीघ्र निभा निज परिपाटी
भाई का रक्त बहा कर हम दूषित कर दें हल्दी घाटी
पर जड़वत शक्ता खड़ा हुआ नयनों से बहती अश्रुधार।
असमंजस में पड़ गया प्रतापी, नीले घोड़े का सवार।।
अस्फुट स्वर, सिहरा शक्तिसिंह, अवरूद्ध कंठ, कम्पित वाणी
यह देख कारूणिक दृश्य, हिल उठी हल्दी घाटी पाषाणी
भैया भैया प्रिय करो क्षमा, मैं देशद्रोह की मूर्ति बना
मेवाड़ भूमि का पावन आँचल मेरे कारण कीच सना
हल्दी की साँझ रही थी खींच दृश्य अतिशय विचित्र
चेटक का दुखद बिछोह, शक्ति का मिलन मधुरतम भाव चित्र
उठ शक्ता! लग जा सीने से मत देर लगा प्यारे भाई
मेवाड़ भूमि हो गई धन्य पाकर के तुझ-सा सौदाई
बाँहों से बाँहें मिलीं, वक्ष से वक्ष, चाह से चाह मिली
यह देख अनूठा मिलन साँझ के मुख पर भी मुस्कान खिली
हल्दी घाटी तुझ में मैने जितना खोया, उतना पाया
यह वक्ष हो गया धन्य, आज फिर शैशव लौट चला आया
हल्दी घाटी की साँझ लुटाती थी उन दोनों पर दुलार।
अब तक उसमें स्वर गूँज रहा, ओ नीला घोड़ा रा सवार।।
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