पहले कब थी जो अब होगी, इस दुनिया की परवाह मुझे !
मैंने जी भरकर गीत कहे, मैं जी भरकर खामोश रहा,
जागृति की लहरों पर भी प्रिय! मैं जी भरकर बेहोश रहा,
पथ की बाधाएँ कहती हैं – हम तुझे मिटाकर छोड़ेंगी-
पर मुझको अपनी मस्तानी गति पर प्रतिक्षण संतोष रहा,
बाधाएँ क्या कर पाएँगी जब स्वयं चाहती राह मुझे।
पहले कब थी जो अब होगी, इस दुनिया की परवाह मुझे !
वैसे यह दुनिया दुनिया है, विषधर भी हैं, मधुकर भी हैं
फुंकारें भी, गुंजारें भी, कटुवचन और मधु स्वर भी हैं,
साक़ी भी मिल ही जाते हैं, मिलते हैं प्रबल अहेरी भी –
मेरे परिचित प्याले भी हैं, औ’ प्रखर धार खंजर भी हैं,
दुनिया के कष्टों का क्या भय, जब मिली अपरिचित आह मुझे।
पहले कब थी जो अब होगी, इस दुनिया की परवाह मुझे !
सुख दुख दोनों चिर परिचित से पाहुन बनते हैं जीवन के
आशायें और निराशायें खेला करती हैं संग मन के
विश्वास सदा का साथी है कहता है आगे बढ़ता चल
मरुस्थल के बाद कहीं तो प्रिय ! दर्शन होंगे “मधुवन के”
पीड़ाओं से ही मिलता है प्रिय ! जीने का उत्साह मुझे।
पहले कब थी जो अब होगी, इस दुनिया की परवाह मुझे !
शूलों के दंशन ही तो फूलों से करवाते हैं ममता,
विपदाओं से ही आती है मानव में जीने की क्षमता,
संघर्षों से लड़ते-लड़ते जब मानव शिव बन जाता है-
उसके हित तब विष अमृत दोनों में हो जाती है समता,
सुख-दुख दोनों से ही साथी करना आता निर्वाह मुझे।
पहले कब थी जो अब होगी, इस दुनिया की परवाह मुझे !
जो कल तक करते थे छाया, वह आज लग गए हैं तपने
पर नहीं किसी से गिला मुझे, हैं शत्रु मित्र सब ही अपने
यह जीवन के समझौते हैं, कल शत्रु आज है मित्र बना
मैं हूँ यथार्थवादी, लेकिन फिर भी प्रिय लगते हैं सपने
मेरी तो शक्ति यही है प्रिय ! जो नहीं किसी से डाह मुझे।
पहले कब थी जो अब होगी, इस दुनिया की परवाह मुझे !
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