-- कुछ अपने बारे में --
मेरे दाहिने पांव की अंगुली में एक तिल है, उस तिल के कारण ही मुझको खानाबदोश का यायावरी जीवन जीना पड़ा। अब भी वही जीवन जी रहा हूं। विगत बयालीस वर्षो से देश के इस कोने से उस कोने तक जीविका के लिये कवि सम्मेलनों को माध्यम बनाये घूम रहा हूं! अभी भी वह क्रम टूटा नहीं, टूटेगा भी नहीं क्योंकि पांव की अंगुली का वह तिल अभी भी अपनी जगह पर कायम है।
तेरह वर्ष की उम्र से अकेले यात्रा करना मेरे भाग्य की विवशता का विधान बना, और यह विधान बाद में शौक बन गया। प्रकृति से मुझको मोह है, अपने एकाकीपन से बातें करना मेरी नियति प्रकृति के प्रति मोह मुझको बाईस वर्ष की उम्र में ही अमरनाथ की यात्रा करवा लाया था।
मेरा जन्म 22 जनवरी सन् 1922 रविवार के दिन, दिन के नौ बजे के करीब संयुक्त पंजाब के जाखल नामक नगर में हुआ। जो अब हरियाणा में है। एक साल का था मां की मृत्यु हुई। मां का अमृत रूपी दूध मेरे भाग्य में नहीं था। मेरे जन्म के साथ ही उसे जहर मार हो गया था। मां का नाम हाकिम देवी था।
मेरे पिता श्री ज्ञानचन्द्र सब्बरवाल जलालपुर जट्टां जिला गुजरांवाला (अब पंजाब, पाकिस्तान में) के रहने वाले थे पर मेरे जन्म के साथ ही अलीगढ़ के गांवों में कपड़े और लकड़ी का व्यापार करने लगे थे, अलीगढ़ के पास के गांव बामनी दुलाई विशेष रूप से भरतपुर मेरे शैशव की क्रीड़ा भुमि रहे। मुझ मातृहीन बालक को अनेक नारियों ने मां की ममता दी। उन्हीं दिनों काव्य की देवी मां सरस्वती की दृष्टि मुझ पर पड़ चुकी थी। उधर के गांवों में फूलडोल (एक तरह के ग्रामीण कवि सम्मेलन) होते थे, मैं भी उन्हें सुनने जाता। हमारे गांव के चुन्नीलाल प्रेमी बहुत अच्छे गायक और कवि थे। पिता के घनिष्ट मित्र के पुत्र मेरे भाई साहब! उनका सानिध्य मुझको काव्य की ओर आकृषित कर रहा था।
पुराण और इतिहास के गौरवशाली पात्रों ने मेरा मन सदैव अपनी ओर खींचा है। बारह वर्ष की उम्र में महाभारत के महान पात्र कर्ण पर ब्रजभाषा में एक कविता लिखी, कर्ण और घटोत्कच में रात्रि युद्ध हो रहा है, घटोत्कच के पराक्रम से कौरव दल में त्राहि–त्राहि मच गई है, भगदड़ फैल गई है। विवश मन कर्ण को अर्जुन के लिये संभाली हुई इन्द्र द्वारा दी गई अमोघ शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी–
छांड़ी जो क्रोध तैं वीर महा।
रणधीर महा, गम्भीर महा ने।।
विद्युत ज्योति सी ज्योति भई।
दहलाय दियौ पाण्डव दल ताने।
पूत सपूत महाबली भीम कौ।
देखि के शक्ति लग्यौ घबराने।
शक्ति “दिनेश” सुरेश की घोर,
सु चीरि कैं फैंक दियौ बलि तानैं।।
चाहे इस कविता में कथन की कमी हो, पर मेरा बाल मन अपनी भावनाओं को छन्दोबद्ध करने की क्षमता पा गया था। गांव के स्कूल से पांचवी पास करने के बाद, पिता ने अलीगढ़ की संस्कृत पाठशाला में भर्ती करवा दिया। मेरे मन कछु और विधिना के कछु और यही बात हुई पंजाब में आना जाना लगा रहता था, सन् 35 में एक मित्र की लड़की के विवाह में पिता जलालपुर गये। मैं भी साथ था। वहां से लौटती बार लाहौर ठहरे।
यहां मैं अपने परिवार का थोड़ा सा ब्यौरा दूंगा। हम चार बहिन भाई थे। सबसे बड़े भाई थे देशराज सब्बरवाल वे मुझसे बाईस वर्ष बड़े थे, रेलवे विभाग में नौकरी करते थे, उसके बाद बहिन लीलावती मुझसे ग्यारह साल बड़ी, उनका विवाह गुजरांवाला में हुआ था। उनसे छोटी सीतादेवी मुझसे नौ साल बड़ी, उनका विवाह लाहौर में हुआ था, परिवार के प्रमुख सदस्य थे चाचा रघुनाथ राय सब्बरवाल, मोह और ममता की साकार प्रतिमा, पिता से दो वर्ष छोटे। अविवाहित थे उनका विचार था औरतें भाइयों में फूट डलवा देती हैं इसलिये विवाह नहीं किया। पिता और चाचा में अटूट स्नेह, राम और लक्ष्मण वाला नाता। माँ की मृत्यु के बाद भाई को शराब पीने की आदत पड़ चुकी थी, उनकी इस आदत से परिवार की समृद्धि कम होने लगी थी।
लाहौर छोटी बहिन से मिलने के उद्देश्य से पिता ठहरे वहीं हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई। और अब मैं बारह तेरह साल की उम्र में अनाथ बालक की श्रेणी में आ चुका था। सन् 1935 से 1939 तक का जीवन बड़ी उहापोह उतार चढ़ाव और भटकन में बीता, कभी चाचा के पास जलालपुर कभी बड़ी बहन के पास गुजरांवाला कभी छोटी बहिन के पास लाहौर, अलीगढ़ भी आना लगा रहता, इस नाटकत्व भरी जिन्दगी में शिक्षा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। मेरी जिन्दगी उस जंगली पौधे की तरह थी जिसे अपना विकास खुद करना होता है।
पिता की मृत्यु के बाद गुरूकुल गुजरांवाला में पढ़ने लगा था। पर वाह रे भाग्य! इसी बीच एक घटना और घटी जिसने एक जगह चैन से नहीं बैठने दिया। मां की मृत्यु के बाद अति भावुक बड़े भाई शराबी बने थे। पिता की मृत्यु के दो वर्ष बाद नौकरी छोड़कर सन्यासी हो गये। उन्होने गृह त्याग कर दिया। अब एक नई समस्या सामने आई उनकी खोज और यहीं से यायावरी भ्रमणकारी जीवन प्रारम्भ हुआ। मैं और चाचा उस कुलदीपक को खोजने में लगे। पढ़ाई फिर समाप्त। कोई कहता, देश को मैने हरिद्वार में साधू वेश में देखा है हम हरिद्वार पहुंचते, मन्दिर मन्दिर भटकते। कोई कहता नाथद्वारा में मैने देश को देखा है, हम नाथद्वारा पहुंचते। इस भटकाव में चाचा जो थोड़ा बहुत व्यापार जलालपुर में करते थे वह भी चौपट हुआ।
आखिर दो साल की भाग दौड़ के बाद हमने उन्हें हरिपुर हजारा (रावलपिंडी और तक्षशिला से आगे) से पंचमार्गियों के मन्दिर में सहायक महन्त के रूप में पाया। वह आकर्षक व्यक्तित्व के हिन्दी उर्दू अंग्रेजी के ज्ञाता व्यक्ति थे। महन्त बनने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं आई, चाचा की डांट फटकार से, आगे नतमस्तक हो महन्त गिरि छोड़ घर लौटे। पर वैराग्य उनके मन में बैठ चुका था। सन 1939 में फिर घर छोड़ गये। आज तक उनका कुछ पता नहीं, जीवित है या मृत। मैं जीवन भर उनकी खोज में लगा रहा। अब भी हूं।
सन 1939 में स्थायी रूप से छोटी बहिन के पास लाहौर, गली गैंदरा बच्छोवाली में रहने लग गया था। जीजा की दो दो दुकानें थी। एक पंसारी की दूसरी सब्जी की, उनका हाथ बंटाता, इस एवज में रोटी आसानी से मिल जाती। कपड़े लत्ते और जेब खर्च का प्रबन्ध चचा करते।
इस भाग दौड़ में भी सरस्वती की कृपा मुझ पर बनी रही। स्वान्तः सुखाय गीत और कवितायें लिखता रहा।
अब मैं अपने आपको संवारने में लगा, अनिश्चित भविष्य को निश्चित बनाने में।
यहीं मैने सन् 1940 में पंजाब यूनिवर्सिटी से हिन्दी आनर्स प्रभाकर की परीक्षा पास की। मेरा जीवन भी संघर्ष रत था और देश भी महान स्वांतत्र्य युद्ध से उलझा हुआ था। मेरे युवा मन पर दोनों बातों का खासा प्रभाव था।
क्रांतिकारियों से मेरा सम्पर्क बन चुका उधर मैं मनोहरलाल तलवाड़ लाहौर में बल्लभ जयन्त विद्यावाचस्पति आदि क्रांतिकारी मेरे बहुत निकट थे। मनोहर तो प्रभाकर में मेरे सहपाठी भी थे। सन् 1942 में उनकी गिरफ्तारी के समय अनारकली में मैं उनके साथ ही था। मैं एक दुकान से पान बंधवाने लगा। तभी सी0आई0डी0 वालों ने मनोहर को आ दबोचा। मैने उसकी ओर देखा। मनोहर ने गर्दन को एक झटका दिया, जिसका भावार्थ था–मेरी ओर आकृष्ट मत हो खिसक। उन्हीं दिनों असमंजस में रहा। फिर एक ओर चल दिया। कई बार लोग कहते हैं तुमने स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन क्यों नहीं चाही, नहीं चाही, क्योंकि मुझको अपनी लेखनी की क्षमता पर बड़ा विश्वास है।
उन्हीं दिनों साहित्य के क्षेत्र में भी मेरा सम्पर्क बढ़ रहा था। प्रसिद्ध नाटककार कवि श्री हरिकृष्ण प्रेमी, और आदरणीय उदयशंकर भट्ट स्नेह प्रसिद्ध पत्रकार राणा जंग बहादुरसिंह, श्री माधव, श्री यश आदि के सानिध्य में आया। इन लोगों से मुझको भरपूर स्नेह मिलने लगा। लाहौर की साहित्य गोश्ठियों में मैं चर्चा का विषय बन चुका था और मैं खूब चाव से सुना जाता था। सन 1942 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की साहित्यरतन परीक्षा पास की। इन्ही दिनों एक युवती से प्रणय प्रसंग चला।
बकौल महाकवि गालिब–
इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के।
अब युवा कवि का मन एक ओर प्रणय गीतों की रचना कर रहा था तो दूसरी ओर राष्ट्रीय संग्राम में उलझा राष्ट्रीय कविताओं की। राष्ट्रीय रचनाओं में ‘‘यह मत समझो‘‘ ने मुझको बहुत ख्याति दी। विदेशी सत्ता को चुनौती के रूप में यह कविता थी। इन्हीं दिनों सन् 1942 में मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया, मेरे जीवनधार चाचा की मृत्यु लाहौर में हुई, उनकी मृत्यु ने मुझको विक्षप्तावस्था तक पहुंचा दिया। रामू के बाग (मरघट) में जहां उनकी चिता जली थी। मैं कई दिन तक जाता रहा। बरगद के पेड़ के नीचे एक बैंच पर बैठ चितास्थल को देखता रहता।
वहीं मरघट नाम की कविता ने जन्म लिया–
मरघट में जल रही चिता है
झुलस रहे अरमान किसी के
लिये सहारा खड़ा हुआ हूं
मैं मरघट के अक्षय वट का
इस तरू ने आंधियां हजारों
और सहा तूफानी झटका
जो जलते हैं वही बने थे
इस जग में मेहमान किसी के।
वहीं एक कविता और लिखी जिसकी दो पंक्तियां हैं–
डाल से टूटा हुआ हूं –
साथ से छूटा हुआ हूं
रत हूं बेजोड़ शाही लूट में लुटा हुआ हूं।
सन् 1942 का मेरे जीवन में बड़ा महत्व है। इसने मुझको अन्यायपन की अनुभूति से छुटकारा दिलवाया। चाचा की मृत्यु के बाद तुरन्त मां सरस्वती ने मेरे पालन–पोषण का जिम्मा ले लिया। तभी लाहौर के ओपनएयर थियेटर में एक मिला–जुला हिन्दी, उर्दू, पंजाबी का कवि सम्मेलन था। तीनों भाषाओं के ख्यातिप्राप्त कवि और शायर वहां उपस्थित थे। श्री प्रेमी और राणा जंग बहादुर की इच्छा से मुझे वहां जाना पड़ा। जनता के सम्मुख मंच पर यह मेरा काव्य पाठ करने का पहला अवसर था, तब मैं सस्वर काव्य पाठ करता था।
अपनी बारी में मैने पहले एक श्रृंगार रस की रचना पढ़ी–
तुम तब आना
जब नभ पर घन दल मंडरायें
चपला चमके मन अकुलाये।
जब शीत पवन के झोकों से
तन सिहर उठे सिर झुक जाये।
जब अनजाने में बढ़ जायें
मेरी बाहें आलिंगन को।
तब हौले–हौले से आकर
तुम भुज बंधन में बंध जाना
तुम तब आना ।
तब जनता के आग्रह पर एक रचना और पढ़ी, जहां यह रचना करूण और गम्भीर थी वहां इसमें कुछ पद राष्ट्रीय भावना के भी थे, चांद दुनिया को देखकर कह रहा है–
मैं आस्मान का चांद मुझे यह दुनिया नहीं सुहाती है,
मैने मंदिर मस्जिद गिरजे गुरूद्वारे को जाकर देखा,
मौलवी, पादरी, पंडित ग्रन्थी सबका अलग–अलग लेखा,
सब अपनी तूती से दुनियां को उल्टी राह चलाते हैं
मानव का मानव दुश्मन है यह उल्टा पाठ पढ़ाते हैं
पगली दुनियां भी आंख मूंदकर पीछे चलती जाती है
मैं आस्मान का चांद …………………
इस रचना पर मुझको रफाकत कमेटी के सचिव श्री मौलाना मुहम्मद इब्राहीम चिश्ती ने सौ रूपये पुरस्कार स्वरूप दिये। उस उत्सव के आयोजकों ने भी सौ रूपये मुझे पारिश्रमिक के रूप में दिये। मेरे लिए जीवन की राह खुल गई, आल इंडिया रेडियो मुझको प्रोग्राम देने लगा, मैं उनके लिए वार्ता लिखता, काव्य पाठ करता, उनके नाटकों में भी भाग लेने लग गया। रफाकत कमेटी भी भाई–चारे पर मुझसे काफी लिखवाने लग गई। कवि सम्मेलनों में भी खूब जाने लगा। कवि सम्मेलनों से ठीक पारिश्रमिक मिल जाता था। सन् 1945 में तो बाहर के प्रान्तों से भी बुलावे आने लग गये थे। उन्हीं दिनों मेरे प्रणय गीतों का संग्रह “अन्तर्गीत” छपा, सन् 1945 में ही एक सामाजिक बड़ा नाटक ‘‘जीवन और जागृति छपा। यह दोनों पुस्तकें अब अप्राप्य हैं।
सन् 1946 में रूप रेखा नामक फिल्म के लिए मैं नायक की भूमिका के लिए चुना गया। उस फिल्म के गीत भी मैने लिखे। सन् 1947 सिर पर देश के विभाजन की बात निश्चत सी हो चुकी थी। मार्च 1947 में लाहौर में दंगे शुरू हुए। एक शाम को मैं लाहौरी गेट में दंगाइयों द्वारा घेर लिया गया। बच तो गया पर बायां पांव बुरी तरह जख्मी हुआ।
वह जख्म अड़तालीस के अन्त तक मेरे साथ रहा। इसके कारण फिल्म का हीरोपन मुझसे छिन गया। सैंतालीस की लिखी कुछ रचनाओं को काफी ख्याति मिली। (1) हमारा सुन्दर श्यामल देश, हमारे लिए बना परदेश, (2) शरणार्थी शिविर, (3) लाहौर और भी कई। देश के विभाजन के बाद दिल्ली आ बसा। लाहौर वाली मस्ती और महक कुछ मिली तो दिल्ली में ही मिली। और अब तो यह बात हो गई है कौन जाये दाग यह दिल्ली की गलियां छोड़कर।
जिन्दगी अब भी वही है, वहीं यायावरी जिन्दगी। ढीठ प्रणाली के कारण अब भी दो तीन साल के बाद मकान बदलना पड़ता। अपने पास एक पक्का पता अभी नहीं है। खैर छोड़ों यह व्यर्थ की चर्चा है। बंटवारे के बाद के कई महीनें बड़ी परेशानी में बीते, फिर धीरे–धीरे अपने को स्थापित किया। उर्मिल मेरी पूर्ण रूपेण संगिनी साबित हुई। अपने अच्छे स्वभाव और व्यवहार से जीवन की विसंगतियों को संभालती हुई। विवाह से पूर्व ही हम दोनों में अच्छा परिचय था। एक दूसरे के प्रति अनुभव थे वहां मेरे एक निजी बहिन थी। उनका परिवार एक सदी से पूर्ण साहित्यिक परिवार रहा है। मेरे लेखन में उर्मिल का बहुत योगदान है। मैं बोलता वह लिखती या मेरे घसीटाक्षर में लिखी रचनाओं की प्रतिलिपि बनाकर, आकाशवाणी, पत्र–पत्रिकाओं और प्रकाशकों तक पहुंचाने का साधन बनती। अभी भी वह काम जारी है। उसमें लेखन की भी प्रयास प्रतिभा है। पुस्तक में उर्मिल सब्बरवाल के नाम से उसकी कई रचनायें और नाटक आकाशवाणी से प्रसारित हुई कई लेख और नाटक छपे भी। उनकी दो पुस्तकें “बनारसी पांडव” और “हमारी आजादी की लड़ाई” भी प्रसारित हुई। उसमें “केसरी” और ‘‘नरसी मेहता‘‘ नामक नाटक में अभिनय भी किये। जैसे–जैसे गृहस्थी बढ़ती गई उर्मिल का झुकाव उधर होता गया, अब गृहस्थी का बोझ हमारे कंधों से हट रहा है, बच्चे संभलने लग गये हैं। शायद उर्मिल लिखने के प्रति फिर सचेष्ट हो गयी हो, उसने मुझ जैसे यायावरी व्यक्ति को बनने संवरने में बड़ा सहयोग दिया।
सन् 1980 दस फरवरी मुझको हार्ट अटैक हुआ। छः महीने खाट पर रहा, लड़कों की पढ़ाई छूटी। 1983 में फिर अस्पताल में भर्ती हुआ, पांच महीने अस्पताल और सालभर खाट पर रहा, कई हजार का खर्च, पर साहसी और पूतों ने संभाल लिया, जोड़ने के लिए मेरे पास कुछ था ही नहीं। एक फीलासफर की जिन्दगी, मेरे साथ तो सदा यही एक रेडियों के लिए नाटक लिखना, रेडियो नाटकों में अभिनय करना, बातों को काव्य पाठ पत्रों में लिखना, रंग मंच के नाटकों में अहम भूमिका निभाना, कवि सम्मेलन, वाणी और लेखनी ही जीविका का साधन रहे।
सन् 1948 में “रावण” नाटक हुआ। लिख तो मैं उसे लाहौर में ही चुका था। यह नाटक एक दो विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी रहा। सन् 1949 में मेरा विवाह उर्मिला से हुआ। सन् 1951 के जश्ने जम्हूरियत के अवसर पर लाल–किला में एफ0सी0 माथुर का लिखा ‘‘पाषाण‘‘ नाटक खेला गया। निर्देशन भी उन्हीं का था। उसमें पाषाण की भूमिका मैने निभायी थी। नाटक एक दिन के लिए था। पर जनता के आग्रह पर दो दिन खेला।
श्री बलवन्त गार्गी के ‘‘केसरों‘‘ श्री चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के “न्याय की खत” श्री के0एस0मलिक के ‘‘दादा दामोदर‘‘ श्री उदय शंकर भट्ट के ‘‘पर्दे के पीछे‘‘ आदि अनेक रंगमंचीय नाटकों में मैने अहम् भूमिकायें निभायी। इस प्रकार मैं दिल्ली के जन–जीवन में रचमिच गया।
अब तक मेरे चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं– (1) “भारत मां की लोरी” इसमें राष्ट्रीय विचार–धारा की कवितायें संग्रहीत हैं, (2) पुरवैया के ऊपर (प्रणयगीत), (3) जीवन और जवानी, (4) ग्रन्थ और पराग दोनों भावप्रधान विचारधारा की कविताओं और गीतों के संग्रह हैं। चारों कविता संग्रह विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कृत हो चुके हैं।
विकास माला की तीन पुस्तकें गोदावरी, राजा भोज, कर्ण भी केन्द्र द्वारा पुरस्कृत हो चुकी हैं। मानव जीवन की विद्रुपता को देख मेरी लेखनी व्यंग्य की ओर मुड़ी, गद्य में तो चार लेख संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पर व्यंग्य कविताओं का संग्रह प्रकाशक के पास ही पड़ा है, चार साल की लम्बी बीमारी के कारण उधर ध्यान ही नहीं दे सका। अब कुछ ठीक हुआ हूं। आगामी कुछ वर्षो में कई नई पुस्तकें आपके सामने आयेंगी। वैसे तीन नाटक, तीन एंकाकी संग्रह कई बाल और विकासमाला की पुस्तकें भी छप चुकी हैं। परिवार में पत्नी, एक पुत्री और दो पुत्र हैं। एक पुत्र–वधू और धेवता। दिल्ली की साहित्यकाला परिषद् का और ठिठोली संस्था द्वारा भी सम्मान पुरस्कार मुझको मिल चुका है। पंजाब सरकार द्वारा प्राप्त राजकवि की उपाधि भी कई वर्ष मेरे साथ रही है।
अन्त में मुझको यही कहना है–
मुझको है केवल अपने घर सन्तोष यही।
मेरे स्वर लहरी मानवता की मीत रही ।।
जिस दिन मुझसे मेरा निर्माता पूछेगा।
रख दूंगा सम्मुख लेखा–जोखा सही–सही।।
प्रिय! मेरे गीतों को पढ़कर मानव
मानव के पास रहेगा जीवन भर।
मैं उन तारों का आराधक शोभित
जिनसे आकाश रहेगा जीवन भर।।
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साहित्य संध्या 22 मार्च 1986 सिटीजनस इंडिया नई दिल्ली में प्रकाशित