मैं लघु पंछी उड़ने वाला, पकड़ोगे पंख जला दोगे,
यह मत समझो!
मैं नवल कली हूँ उपवन की, मसलोगे धूल मिला दोगे,
यह मत समझो!
मैं नन्ही पतली दीप शिखा, मारोगे फूँक बुझा दोगे।
यह मत समझो!
मैं कच्ची मिट्टी हूँ जिसको पानी में डाल गला दोगे,
यह मत समझो!
मैं एक प्रबल भूचाल, कभी यदि भूले भटके भी आया-
सारा संसार हिला दूँगा।
मैं जवालामुखी भयंकरतम, फट पड़ा कहीं अनजाने में,
तो अगजग भस्म बना दूँगा।
मैं आँधी का अल्हड़ झोंका, यदि अपनी मस्ती में आया,
अम्बर तक तुम्हें उड़ा दूँगा।
मैं प्रलय मेघ, यदि बरस पडा अपने पूरे पागलपन से,
जल थल को एक बना दूँगा।।

मैं भक्त विभीषण हूँ, तुमको जो सब रहस्य बतला दूँगा,
यह मत समझो !
अपनी सोने की लंका में, मैं खुद ही आग लगा दूँगा,
यह मत समझो !
तुम चोर दिखाते हो रोटी, मैं रह रह पूंछ हिला दूँगा,
यह मत समझो !
तुम प्रबल विजेता, मैं बंदी, पर फिर भी सीस झुका दूँगा
यह मत समझो !

मैं महाप्रतापी रावण हूँ, जो हँसते हँसते युद्ध भूमि में,
प्राण गँवाने आया हूँ।
है एक बूँद भी रक्त अगर बाकी तो लड़ना ही होगा
यह तुम्हें बताने आया हूँ।
मैं एक प्रबलतम विद्रोही, विद्रोह भरे स्वर से जग में-
नव क्रान्ति मचाने आया हूँ।
मैं गा गाकर अतिशय ऊँचा, गीदड़ के पहरे में बन्दी,
सब सिंह जगाने आया हूँ।
कर आगे मुर्ख शिखंडी, मुझ से मेरे शस्त्र छुड़ा लोगे,
यह मत समझो !
मैं द्रोणाचार्य, जिसे कह कर, मर गया पुत्र बहका लोगे,
यह मत समझो !
कारा की सीली कोठरियों में डाल मुझे मिटवा दोगे ,
यह मत समझो !
मेरे जीते जी तुम मेरी बस्ती में आग लगा लोगे,
यह मत समझो !
मैं अश्व्थामा हूँ, मुझको चाहे तुम जी भर दुष्ट कहो,
जीवित ही तुम्हें जला दूँगा !
उस पामर दुष्ट शिखंडी की जो कायरता का है प्रतीक
लातों से मार मिटा दूँगा।
है मातृभूमि तेरी बंदी, आ शक्तिसिंह से मतवाले
तुझ को सम्राट बना दूँगा।
यदि भूला पंथी लौट पड़ा, तो अपनी लम्बी बाहों का –
यह हार उसे पहना दूँगा। ।

मैं सुन्दर अबला हूँ, मुझको नौरोज़े में बहका लोगे,
यह मत समझो !
मैं केवल कोरा ब्राह्मण हूँ, धक्के दे मुझे उठा दोगे,
यह मत समझो !
मैं मद  मतवाली मदिरा हूँ, मस्ती से घूँट चढ़ा लोगे,
यह मत समझो !
फिर झूम झूमकर मस्ती में जो मन में आया गा लोगे,
यह मत समझो !
मैं पृथ्वीराज का एक पत्र, जो हो पथ से विपरीत रहे,
फिर पथ पर ही लौटा दूँगा।
मैं विष्णुगुप्त का प्रबल रोष, यह खुली शिखा तब बाँधूँगा
जब रिपु का वंश मिटा दूँगा।।
मैं काल कूट विष हूँ, जिसकी यदि एक बूंद भी पी पाए,
तो मीठी नींद सुला दूँगा
मैं मानव हूँ, दानवता को पथ भुल चुकी मानवता का –
अब फिर पाठ पढ़ा दूँगा।

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