हो जहाँ पर भी
वहीँ पढ़ना इसे तुम
लिख रहा हूँ मैं तुम्हारे नाम पाती
बहुत दिन सोचा,
तुम्हारे वक्ष के नीचे दबा इन्सान का दिल,
स्वयं ही तुमसे कर कुछ बात शायद
औ’ तुम्हारा हाथ, खुद ही दे सजा तुमको,
तुम्हारे गाल पर कसकर लगाए एक चाँटा !
बात पक्की है –
कि दर्पण देखते होंगे सुबह हर रोज ही तुम।
क्या नहीं
प्रतिछवि तुम्हारी ने कभी धिक्कार कर तुम से कहा –
“क्या कर रहे हो !
कीर्ति झूठी साथ कब तक दे सकेगी !”
किन्तु, शायद स्वयं को सुनना,
स्वयं को देखना, भाता नहीं तुमको।
दर्द की बातें बड़े स्वर से सुनाते,
दर्द सचमुच क्या, नहीं तुम जानते हो।
दर्द की अनुभूतियाँ अपनी अगर हों
भाव, भाषा साथ ही लाती सदा हैं,
तीर जो खाया गया निज वक्ष पर हो
घाव उसका, शब्द अपनों में व्यथा अभिव्यक्त करता
टीस अपनी दूसरों की साँस के रथ पर चढ़ा करके
नहीं गाता कभी भी !
यदि न सृष्टा ने दिए हैं शब्द, स्वर
या भाव भाषा की प्रबल क्षमता
जिन से व्यक्त अपनी पीर
सब पर कर सकें हम —
क्या बुरा है।
एक गूँगे की तरह,
कुछ इंगितों से
ही करें अभिव्यक्त अपनी वेदना हम।
समझ दुनिया भले ही पाए न अपनी बात पूरी
किन्तु निश्चित है,कि मौलिक है यहाँ कुछ
सोच कर वह दाद देगी !
इसलिए हे मित्र !
पढ़ना ध्यान से इसको तनिक तुम
लिख रहा हूँ मैं तुम्हारे नाम पाती।
किन्तु तुम को प्रीति से क्या !
गीत से क्या !
वास्ता तुम को नहीं साहित्य से कुछ !
और न अन्तर में उगी अनुभूतियों से !
एक फैशन बन सकता है कवि कहाना
स्वयं को लेखक बता कर,
गोंद, कागज और कैंची के सहारे पुस्तक लिख
रौब दुनिया पर जमाना।
और फिर नवनीत-लेपन की क्रिया से
मठाधीशों के मठों के द्वार पर माथा घिसाना
भीख में बदले खुशामद के
पुरस्कृत तुम करते
प्रबल कैंची की करामातें सुहानी।
सच बताओ।
क्या तुम्हारा मन नहीं धिक्कारता तुम को कभी भी ?
भरी महफिल में किसी का गीत
अपना कह सुना देना।
और अपनी जिन्दगी में व्यस्त, भोली अपढ़ जनता से
अनूठी दाद लेना।
कंठ के बल पर जमाना रंग अपना
सिर्फ झूठी वाहवाही लिए
ईमान अपना बेचते हो तुम !
भारती के भाल पर क्यों कीच का टीका लगाते हो ?
जो सुमन चढ़े हैं शीश पर उसके
सिर्फ उनको धो दुबारा तुम चढ़ाते हो
दूसरों के रक्त से उपजी हुई अनुभूतियों के
बदल कर कुछ पंख तुम अपनी बनाते हो।
दूसरों की छिटकती यश-चन्द्रिका को
चातुरी से भाल पर अपने सजाते हो।
दस्यु बन कर।
दूसरों के कोष पर तुम डालते डाका।
दूसरों की कीर्ति का, धर मुकुट अपने भाल पर
तुम मुस्कराते हो।
सच बताना !
पूछता हूँ बात तुम से–
किन्तु पूछूँ क्या ?
जब कि है विश्वास मुझ को
तुम न उत्तर दे सकोगे !
अति भला है,
चोर लेखक की जगह पर,
श्रेष्ठ अनुवादक कहाना।
दूसरों की कीर्ति उनकी ही बता कर
पहरुआ बन कर सजग साहित्य का,
उल्लास की लहरें उठाना।
जानते तो तुम स्वयं ही
छल भरी मुस्कान आकर्षित किसी को
कर नहीं पाती कभी भी !
और अन्तर से उठी मुस्कान
फीकी ही रहे चाहे,
मगर लगती भली है।
इसलिए हे मित्र !
चाहे अटपटे हों, अनपढ़ हों
भाव भाषा की कमी उनमें भले हो
गीत अपने ही सुनाओ
कलम अपनी से
सलोनी और तुतली बालिका-जैसी सुखद अनुभूतियाँ अपनी जगाओ !
भारती के भाल पर,
सिन्दूर की क्षमता नहीं तो, राख का टीका लगाओ।
किन्तु हो वह राख
अपने ही हृदय की सुलगती चिनगारियों की राख।
अच्छा अब विदा !
मेरे कहे का मान मत जाना बुरा !
हृदय-परिवर्तन तुम्हारा
कर सकीं ये पंक्तियाँ यदि
धन्य समझूँगा–
स्वयं को और तुम को
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